वर्ष - 32
अंक - 16
15-04-2023
(मिड डे में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार अजाज अशरफ के लेख का हिंदी अनुवाद)

आउटलुक, जहां मैंने 12 वर्षों तक काम किया, उसपर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा डाले गए आयकर के छापों के बाद, विनोद मेहता ने संपादक के तौर पर एक नयी रणनीति अख्तियार कर ली. उन्होंने पहले की अपेक्षा ज्यादा जल्दी-जल्दी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- भाजपा के लेखकों के लेख छापने शुरू कर दिये. जैसा कि उन्होंने हमें बताया कि ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा था ताकि सरकार के साथ अपरिहार्य टकरावों के दौरान, पत्रिका की रक्षा करने वाले भाजपा के लोग उनके पास हों.

वर्तमान समय में भय के बैरोमीटर को जांचने के लिए मैंने तीन राष्ट्रीय अखबारों – टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और हिंदुस्तान टाइम्स – के पिछले दिनों के संस्करणों को देखा ताकि यह जांचा जा सके कि किस अखबार के लिए आरएसएस-भाजपा के लोगों ने कितने-कितने समयांतराल पर लिखा. यह कसरत काफी दुष्कर हो चली; लेखकों की सूची अधूरी प्रतीत हो रही थी, इसके चलते मैं इंटरनेट पर उन लेखकों की सूची ढूंढने के लिए विवश हो गया, जिन्होंने मेरी याददाश्त में इन अखबारों के लिए लिखा था. मैंने - द हिन्दू - को इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किया क्यूंकि राजनीतिक लेखक उसमें बहुत कम हैं.


संख्याएं खुद बोलती हैं

मई 2014 से आरएसएस-भाजपा के स्तंभकारों ने 640 लेख लिखे. इंडियन एक्सप्रेस में 337, हिंदुस्तान टाइम्स में 97, टाइम्स ऑफ इंडिया में 206. 62.34 प्रतिशत में कम से कम एक बार प्रधानमंत्री या उनकी सरकार का उल्लेख है. 3 राष्ट्रीय अखबारों में से एक में हर 5वें दिन आरएसएस-भाजपा के लेखकों में से किसी का लेख छपता है. राम नाथ कोविंद ने एक लेख में सर्वाधिक बार मोदी का उल्लेख किया – 22 बार.


स्वपन दासगुप्ता और एमजे अकबर को मैंने अपनी खोज से बाहर रखा. वे अपना  रूपांतरण होने के काफी साल पहले से पत्रकार थे. पर संघ से जुड़े रहे और दो बार राज्यसभा में प्रतिनिधित्व करने के अलावा भी भाजपा के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहे. पत्रकार बलबीर पुंज को मैंने इस सूची में शामिल रखा. यह भूमिका ये बताने के लिए है कि आरएसएस-भाजपा के स्तंभकारों की जो सूची मैंने बनाई, उसमें संख्या, वास्तविक संख्या से कम है. परंतु उसके बावजूद भी यह उस भय को पढ़ने में मददगार है जो कि आज भारतीय मीडिया में व्याप्त है –  या फिर पत्रकारिता में असंतुलन के पैमाने को मापने में मददगार है.

मई 2014 में सत्ता पर काबिज होने के बाद आरएसएस-भाजपा के सदस्यों ने लगभग 3000 दिनों में कुल जमा 640 अग्र लेख लिखे. इसका मतलब यह है कि हर पांचवें दिन, तीन में से एक अखबार में, आरएसएस-भाजपा कुनबे से किसी न किसी का लेख छप रहा था. इन 640 अग्र लेखों में से इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले लेखों की संख्या थी 337, हिंदुस्तान टाइम्स 97 और टाइम्स ऑफ इंडिया में 206. इंडियन एक्सप्रेस के आंकड़े अंशतः इसलिए भी अधिक हैं क्यूंकि इन तीन में से उसका इंटरनेट आर्काइव सबसे बेहतर है. उसके संपादकीय पृष्ठ जीवंत हैं – मालिकों और संपादकों को पलटवार का भय तभी होता है, जब वो सरकार के विरुद्ध बोलते हैं.

मैंने पाया कि 640 लेखों में से 399 यानि कि 62.34 प्रतिशत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके सरकार का, कम से कम एक बार उल्लेख जरूर है. एक लेख में आरएसएस के नेता राम माधव ने मोदी का 20 बार उल्लेख किया तो दूसरे में 18 बार. पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद ने कार्यकाल समाप्त होने के बाद लिखे एक लेख में आभार प्रदर्शन करते हुए मोदी का उल्लेख 22 बार किया. केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने ऐसा एक लेख में 21 बार किया. ज्यादातर भाजपा प्रवक्ताओं में  अकारण ही, अपने लेखों में खुशामदी भाव से मोदी का नाम दोहराने की प्रवृत्ति देखी गयी है.

शायद ऐसा इसलिए कि वे मोदी के इस बात के लिए अहसानमंद हों कि मोदी की कृपा ही उनके लेखक बनने का कारण है. मई 2014 से राम माधव ने इंडियन एक्सप्रेस के लिए 101 लेख लिखे, हिंदुस्तान टाइम्स के लिए 25 और टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए 6. इंडियन एक्सप्रेस की लेखकीय सूची बताती है कि उन्होंने मई 2014 में ही लिखना शुरू किया. पूर्व उपराष्ट्रपति वैंकैया नायडू ने तीनों अखबारों में मिला कर 68 लेख लिखे, भूपेंद्र यादव ने 34, सांसद डॉ. राकेश सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस के लिए 31 और पूर्व केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने इसके लिए 22 लेख लिखे. प्रवक्ता अनिल बलूनी की इंडियन एक्सप्रेस में 26 बाईलाइन हैं तो उनके सहयोगी शहजाद पूनावाला की टाइम्स ऑफ इंडिया में 20.

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मोदी ने टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए 18 लेख लिखे और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए 9. अमित शाह ने टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए 12 लेख लिखे और इंडियन एक्सप्रेस के लिए 2, जिनमें से एक उनके भाषण का सार है. भारतीय मीडिया में जो कुछ भी अच्छा है, शाह उसके श्रेय मोदी को देते हैं. उदार, प्रिय, क्यूं है कि नहीं? 30 कैबिनेट मंत्रियों में से 17, टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए लिख चुके हैं.

यह कह पाना मुश्किल है कि आरएसएस-भाजपा के लेखकों के लेख, उनकी नाराजगी की भय से संपादक स्वीकार करते हैं या वे लेख भेजने के लिए, उनका चयन करते हैं.  अपनी किताब –  हाउ मोदी वन इट : नोट्स फ्रॉम 2014 इलेक्शन्स –  में पत्रकार हरीश खरे लिखते हैं कि ‘ऐसा प्रतीत होता है कि चुनाव कार्यक्रम ने मीडिया प्राफेशनल्स को हौसला दे दिया कि वे छिपाव में से बाहर निकल आयें.’ खरे का यह मत है कि पत्रकार वैचारिक रूप से संघी हैं. यह सिद्ध करना मुश्किल है.

पर मीडिया संस्थानों में आरएसएस-भाजपा के लेखकों को प्रकाशित करने की होड़ लग जाने से निश्चित ही विपक्ष को असमान, ऊबड़-खाबड़ मैदान ही मिलता है. यह जरूर है कि पी.चिदंबरम के पास एक कॉलम है और डेरेक ओ’ब्राएन के पास भी. शशि थरूर के बाइलाइन भी अक्सर छपते हैं. पर मीडिया में संतुलन का तक़ाजा है कि पिछले आठ सालों में मीडिया को विपक्ष के नेताओं के भी 640 लेख छापने चाहिए थे, नहीं तो कम से कम 500 तो छापने ही चाहिए थे. पर ऐसा नहीं हुआ.

भाजपा को दिया गया अनुचित लाभ ही वह कारण है, जिसकी वजह से विपक्ष मीडिया की आलोचना करता है. हाल में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की इस बात के लिए आलोचना हुई कि एक प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकार के साथ उन्होंने शिष्ट व्यवहार नहीं किया. प्रेस कांफ्रेंस की वीडियो रिकॉर्डिंग दिखाती है कि गांधी से पहले पूछा गया कि भाजपा के द्वारा कहा जा रहा है कि जिस टिप्पणी के लिए उन्हें मानहानि के मुकदमें में सजा हुई, वह टिप्पणी ओबीसी समाज का अपमान है, इसके बारे में वे क्या सोचते हैं. उन्होंने जवाब दिया. फिर ‘धंधे’ जैसी अशोभनीय शब्दवाली का प्रयोग करते हुए कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के अदानी के साथ व्यापार करने के बारे में पूछा गया. गांधी ने जवाब दिया. ‘ओबीसी अपमान’ का सवाल दोबारा उछाले जाने पर उन्होंने आपा खोया. मोदी के विपरीत गांधी प्रेस से बचने की कोशिश नहीं करते हैं. इसके बावजूद लोकतांत्रिक या सत्ता से विरत लोगों के प्रति पत्रकारों का रवैया उपेक्षापूर्ण है. आंशिक रूप से, इससे भी कुकुरमुत्तों की तरह उग आए संघी कुनबे के स्तंभकारों के मामले को समझ सकते हैं.

(हिंदी अनुवाद –  इन्द्रेश मैखुरी)