वर्ष - 32
अंक - 14
01-04-2023

विपक्ष के खिलाफ मोदी सरकार का अभियान भारतीय संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ तीखे होते युद्ध की शक्ल लेता जा रहा है. जहां अडानी घोटाले की जांच करने के लिए विपक्ष ने संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग उठाई है और राहुल गांधी ने मोदी-अडानी संबंध पर सवाल खड़े किए हैं, वहीं मोदी सरकार विपक्ष को निशाना बनाकर अंधाधुध बदले की कार्रवाई कर रही है. राहुल गांधी के भाषण से तमाम आलोचनात्मक संदर्भ हटा दिए गए, और उसके बाद शासक दल ने राहुल गांधी से उन तथाकथित टिप्पणियों के लिए क्षमा-याचना की मांग करते हुए संसद की कार्रवाई ठप्प कर दी जो उन्होंने दरअसल लंदन की हालिया यात्रा के दौरान की ही नहीं थी. इसी बीच 21 फरवरी को गुजरात हाई कोर्ट ने राहुल गांधी के खिलाफ अप्रैल 2019 के आपराधिक मानहानि मुकदमे में दिए गए स्थगन को उठा लिया, और 23 मार्च के दिन राहुल गांधी को अभियुक्त बनाकर उन्हें दो साल की कैद की सजा सुना दी. इसके ठीक दूसरे ही दिन लोकसभा सचिवालय ने उनकी लोकसभा सदस्यता खारिज कर दी.

जितनी तेज गति से ये कार्रवाइयां संपन्न की गईं, उसकी तुलना तो सर्जिकल स्ट्राइक से ही की जा सकती है. उतना ही परेशान करने वाली चीज इस मामले के गति-पथ का चरित्र भी रहा है. अब तो खुद इस मानहानि मुकदमे की वैधता पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं, क्योंकि शिकायतकर्ता ने इसे उन तमाम लोगों के लिए मानहानि का मामला कहा है जिसका उपनाम मोदी है, जबकि आम तौर पर कोई आपराधि का मानहानि का मुकदमा ऐसे नामी-गिरामी व्याक्ति द्वारा दायर किया जाता है जिसकी खुद की ख्याति पर ध्ब्बा लगता है. और फिर, खुद उस शिकायतकर्ता ने मार्च 2022 में गुजरात हाई कोर्ट से पर्याप्त साक्ष्य न होने का कारण बताकर इस मुकदमे में स्थगन की याचना की थी और स्थगन हासिल भी कर लिया था. वही शिकायतकर्ता फरवरी 2023 में रहस्यपूर्ण ढंग से पुनः यह मुकदमा खुलवाता है और सुनवाई तथा सजा की घोषणा एक माह के अंदर पूरी हो जाती है.

दो वर्ष की कैद की सजा किसी मानहानि मुकदमे में उच्चतम सजा होती है, और सूरत की कोर्ट ने यह उच्चतम सजा सुना दी. अभियुक्त बनाये जाने के बाद किसी निर्वाचित जन प्रतिनिधि को अयोग्य करार देने के लिए दो वर्ष की कैद की सजा न्यूनतम सजा है. इस प्रकार, राहुल गांधी की सदस्यता की समाप्ति अब एक निष्पन्न कार्य कहा जा सकता है, लेकिन जिस तत्परता से लोकसभा सचिवालय ने चौबीस घंटे के अंदर उनकी सदस्यता खारिज कर दी, उसे सभी स्थापित मानदंडों का उल्लंघन ही कहा जाएगा. लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी के मुताबिक इस तरह से अयोग्य घोषित करना भारत के राष्ट्रपति का परमाधिकार है, न कि लोकसभा अध्यक्ष का. राहुल गांधी की सजा का एक दूसरा तात्पर्य यह भी होगा कि उन्हें आठ वर्षों के लिए कोई चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा.

बेशक, इस सजा पर किसी उच्च्तर कोर्ट द्वारा स्थगन लगाने से वर्तमान लोकसभा में राहुल गांधी की सदस्यता फिर से बहाल हो जाएगी अथवा उनपर चुनाव लड़ने से रोक भी खत्म हो जाएगी. अब सभी की आंखें सूरत कोर्ट द्वारा राहुल गांधी को कानूनी समाधान के लिए दी गई 30 दिनों की मोहलत पर टिकी रहेंगी, लेकिन यह बात तो दिन की रोशनी की तरह साफ हो गई है कि भाजपा कानून का मनपसंद इस्तेमाल करती है – उसके अपने नेताओं के खिलाफ आरोप लगने पर सुरक्षा कवच के रूप में, और विपक्ष के लिए बदला लेने के औजार के बतौर !

उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक जैसे भाजपा-शासित राज्यों में ऐसे अनेक दृष्टांत हैं जिसमें कई सजायाफ्ता विधायक और मंत्री सजा मिलने के बाद उच्चतर कोर्ट से स्थगन लेने की अवधि का पूरा फायदा उठाते हुए लंबे समय तक अपने पदों पर कायम रहे. गुजरात में मोदी मंत्रीमंडल के जल संसाधन मंत्री बाबू बोखीरिया 2013 में अवैध खनन के आरोप में तीन साल की सजा मिलने के बाद भी अपने पद पर बहाल रहे. बाद में उन्हें सजा पर स्थगन मिला और फिर रिहाई भी हो गई. इसके ठीक विपरीत लक्षद्वीप से एनसीपी के सांसद मोहम्मद फैजल पर हत्या के प्रयास के आरोप में जनवरी 2023 में सजा मिलने के तुरंत बाद उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया. हालांकि केरल हाई कोर्ट ने जल्द ही उस आदेश को निरस्त कर दिया, और भारत का निर्वाचन आयोग 27 फरवरी के लिए घोषित उप-चुनाव कार्यक्रम को रोकने पर बाध्य हो गया, लेकिन लोकसभा सचिवालय अपने अयोग्यता आदेश को वापस लेने और लक्षद्वीप से निर्वाचित सांसद के बतौर उन्हें फिर से बहाल करने से इन्कार कर रहा है.

इसीलिए भाजपा द्वारा राहुल गांधी की अयोग्यता के बारे में यह दावा करना महज एक दिखावा है कि कानून अपना रास्ता ले रहा है. उतना ही शैतानीपूर्ण भाजपा का यह विमर्श भी है कि जो इस सजा को ओबीसी गौरव की संपुष्टि के बतौर पेश करता है. भगोड़े व्यवसाइयों नीरव मोदी और ललित मोदी को ओबीसी के साथ कोई लेनादेना नहीं है. जो पार्टी आरक्षण को उलट देने और उसमें कटौतियां करने के लिए सबकुछ कर रही है, और निजी क्षेत्र में आरक्षण तथा जाति-आधारित जनगणना का विरोध करके एससी/एसटी/ओबीसी को मौका देने से लगातार इन्कार कर रही है और बारंबार विपक्षी पार्टियों के ओबीसी नेताओं का अपमान करती रही है, वही पार्टी कांग्रेस तथा संपूर्ण विपक्ष के सर्वप्रमुख नेता को मिली इस सजा पर ओबीसी-परस्त रंग चढ़ाने की कोशिश कर रही है.

राहुल गांधी की सदस्यता को साजिशाना ढंग से खारिज करना दरअसल 2024 चुनावों के पहले अडानी महाघोटाले पर उठ रहे सवालों को दबाने तथा विपक्ष व जनता को खामोश कर देने का मोदी हुकूमत का हताशोन्मत्त प्रयास ही कहा जाएगा. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह प्रयास मोदी निजाम पर ही पलट कर वार करे. इसने कार्रवाई में व्यापकतर विपक्षी एकता निर्मित करने जनता के बीच और बड़ी जागृति पैदा होने के स्पष्ट संकेत दिए हैं. अडानी घोटाले को महज एक बड़ी काॅरपोरेट धेखाधड़ी के बतौर ही नहीं देखना चाहिए, बल्कि यह सर्वोपरि भारतीय लोकतंत्र और अर्थतंत्र को मोदी-अडानी गठबंधन द्वारा हड़प लिए जाने का मामला है, जो सत्ता के केंद्रीकरण तथा धन के संकेंद्रण के बीच एक गहरे रिश्ते में पैदा हुआ है. हमें अडानी घोटाले को निजीकरण और रोजगार-क्षरण जैसे आज के ज्वलंत मुद्दों के साथ जोड़ना चाहिए, तथा काॅरपोरेट लूट व व्यापक अभिवंचना की सच्चाई को बुलंद करके राष्ट्रवाद और विकास के भाजपाई विमर्श के झूठ का भंडाफोड़ करना चाहिए. लोकतंत्र की जनाकांक्षा निरंकुश शासक की हमले की मंशा पर अवश्य भारी पड़े!