वर्ष - 32
अंक - 16
15-04-2023

- पुरुषोत्तम शर्मा

भारत में शोषितों-उत्पीड़ितों की मुखर आवाज और सच्चे लोकतंत्र के सिपाही बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर को आज एक जाति विशेष का नेता बताने की चौतरफा कोशिशें हो रही हैं जबकि डॉ. भीमराव अंबेडकर मानते थे कि भारत में जातियों के सम्पूर्ण विनाश के बिना एक लोकतांत्रिक और समता आधारित समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता है. अंबेडकर ने एक जगह कहा ‘यदि मैं जातियों के विरुद्ध हूं. तो फिर मेरी दृष्टि में आदर्श समाज क्या है? मेरा आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित होगा. किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता तो होनी ही चाहिए जिससे कोई भी हित परिवर्तन समाज के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच सके. दूध पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है. उन्होंने कहा लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के मिले जुले अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है.

उन्होंने कहा –  ‘समता’ के आलोचक यह कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते और उनका यह तर्क वजन भी रखता है. लेकिन राज्य के होते हुए यह तर्क विशेष महत्त्व नहीं रखता क्योंकि शाब्दिक अर्थ में ‘समता’ असंभव होते हुए भी सिद्ध है. इसी प्रकार स्वतंत्रता पर उन्होंने कहा- एक स्थान से दूसरे स्थान, एक काम से दूसरे काम की ओर जाने की स्वतंत्रता, जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वतंत्रता, संपत्ति के अधिकार, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औजार व सामग्री रखने के अधिकार, जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके, इस अर्थ में भी स्वतंत्रता पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती है. उन्होंने कहा ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता. ‘दासता’ में वह स्थिति भी शामिल है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है. यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है.

डॉ. अंबेडकर ने कोई जातीय पार्टी बनाने के बजाय 1936 में ‘स्वतंत्र लेबर पार्टी’ की स्थापना की. 1937 में बाबा साहेब अंबेडकर सहित 13 लोग इसी पार्टी से चुनाव जीत कर बॉम्बे विधानसभा में पहुंचे. उन्होंने लोकतंत्र, समता, स्वतंत्रता पर आधारित अपने सिद्धांतों के अनुरूप संविधान और कानून बनाने के बाद भी समाज में कोई परिवर्तन न दिखने से निराश होकर नेहरू मंत्रिमंडल को त्याग दिया. उनके उलट आज के तथाकथित अंबेडकरवादी सत्ता और सुविधाओं के लिए सारे सिद्धांतों और उसूलों की बेशर्मी से बलि चढ़ा रहे हैं.

वर्तमान सरकार जब कारपोरेट कम्पनियों के हित में 44 श्रम कानूनों को खत्म कर नई गुलामी के चार श्रम कोड ले आई है, तब हमें नहीं भूलना चाहिए कि 1937 में कोंकण में बहुजन श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए डॉ. अंबेडकर ने एक विधेयक पेश किया. 1938 में, कोंकण औद्योगिक विवाद विधेयक में श्रमिकों को हड़ताल का कानूनी अधिकार दिलाया. उन्होंने बीड़ी मजदूरों को न्याय दिलाने के लिए बीड़ी संघ की स्थापना की. 2 जुलाई 1942 को वे वायसराय के मंत्रिमंडल में श्रम मंत्री बने. इस दौरान उन्होंने मजदूरों के लिए कई कानून बनाए. 2 सितंबर 1945 को कामगार कल्याण योजना की शुरुआत की गई. इस योजना को लेबर चार्टर के नाम से भी जाना जाता है. 14 अप्रैल 1944 को डॉ. अंबेडकर ने सवेतन अवकाश पर एक विधेयक पारित करवाया. श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी तय करने का प्रावधान करने वाला विधेयक पेश किया जिसमें न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 को अधिनियमित किया गया और साथ ही औद्योगिक विवादों को निपटाने के लिए एक सुलह तंत्र (मध्यस्थता तंत्र) स्थापित करने का प्रावधान किया गया.

डॉ. अंबेडकर सितंबर 1943 में बुलाई गई त्रिपक्षीय श्रम परिषद के अध्यक्ष थे. इसमें उन्होंने श्रमिकों के लिए भोजन, वस्त्र, आश्रय, शिक्षा, सांस्कृतिक आवश्यकताओं और स्वास्थ्य उपायों के साथ-साथ श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के उपायों पर प्रस्ताव पारित किए.

खानों में महिलाओं को ‘माइन्स मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट’ के तहत मातृत्व अवकाश (प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर) देने की अनुशंसा की गई. ‘कारखाना संशोधन विधेयक’ पारित करके श्रमिकों को 10 दिन का सवेतन अवकाश और बाल श्रमिकों को 14 दिन का सवैतनिक अवकाश देने के लिए कानून में संशोधन किया गया. साथ ही, 1946 के बजट सत्र में, सप्ताह के काम के घंटे 54 से घटाकर 48 घंटे और 10 घंटे के बजाय 8 घंटे प्रतिदिन करने का प्रस्ताव किया गया था. 21 फरवरी 1946 को, भारतीय ट्रेड यूनियन (संशोधन) अधिनियम लाकर प्रबंधन को ट्रेड यूनियनों को मान्यता देने के लिए बाध्य करने के लिए केंद्रीय विधान परिषद में एक विधेयक पेश किया था.

19 अप्रैल 1946 को केंद्रीय विधान परिषद में न्यूनतम वेतन और श्रमिकों की संख्या के संबंध में एक विधेयक पेश किया. उन्होंने संविधान में प्रावधान किया कि पुरुषों के समान पद पर काम करने वाली महिलाओं को समान वेतन दिया जाना चाहिए. बाबा साहेब ने कहा है ‘जबरन श्रम एक अपराध है’.

उन्होंने मज़दूरों के आर्थिक जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए स्वतंत्र लेबर पार्टी के घोषणापत्र में आर्थिक नीति को स्पष्ट किया. उन्होंने सुझाव दिया कि राज्य को श्रमिकों की आर्थिक स्थिति के उत्थान के लिए धन के समान वितरण के प्रयास करने चाहिए. मगर वर्तमान मोदी सरकार डॉ. अम्बेडकर द्वारा देश के मजदूरों को दिलाए गए इन सभी अधिकारों को एक-एक कर खत्म कर रही है.

डॉ. अंबेडकर ने कृषि की प्रगति और किसानों के उत्थान के लिए भूमि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की ताकि जोतने वाले को अपनी आजीविका चलाने के लिए राज्य की ओर से खेत मिल सके. उन्होंने भूमि बंधक बैंक, किसान ऋण ब्यूरो, क्रय एवं बिक्री संघ आदि की स्थापना के संबंध में नीतियां बनाने पर जोर दिया.

उन्होंने जब मनु स्मृति का विरोध किया तो वे भारतीय समाज में जड़ जमाई हुई जातिवादी व्यवस्था के सम्पूर्ण विनाश की बात कर रहे थे. वे जातियों के विनाश के बिना भारत में लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं करते थे. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा कि जातियां सिर्फ समाज का ही नहीं बल्कि मजदूरों में भी विभाजन करती हैं. इस तरह अंबेडकर जातियों के अंदर शोषित और उत्पीड़ित वर्ग की पहचान करते थे. उन्होंने धर्म की बुनियाद पर राज्य की स्थापना का भी उतना ही विरोध किया, जितना जाति व्यवस्था का. उन्होंने आरएसएस व हिन्दू महासभा की साम्प्रदायिक राजनीति का डटकर विरोध किया और कहा कि भारत को कभी भी हिन्दू राष्ट्र नहीं बनने देना है. अगर भारत हिन्दू राष्ट्र बना तो देश पर सबसे बड़ी विपदा आ जाएगी.

आज जब भारतीय लोकतंत्र अपने इतिहास में सबसे बड़े फासीवादी हमले का सामना कर रहा है, एक विपक्ष विहीन संसदीय व्यवस्था की ओर भारत को जबरन धकेला जा रहा है, तब लोकतंत्र को लेकर डॉ. अम्बेडकर की गहरी समझ पर एक नजर डालना जरूरी है. अंबेडकर के अनुसार संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का होना आवश्यक है. राजनीतिक दल जनमत की अभिव्यक्ति और उसको लागू करने के औजार हैं. लेकिन व्यवहार में राजनीतिक दल जनमत का निर्माण करते है. उन्होंने लोकतंत्र में सुधार एवं इसे और प्रभावी बनाने हेतु निम्न सुझाव दिये – 

1. जनता में शिक्षा का स्तर बढ़ाया जाना चाहिए.
2. गरीबी का उन्मूलन किया जाए.
3. लोगों को मतदान करने हेतु प्रोत्साहित किया जाए.
4. बुद्धमान एवं शिक्षित लोगों को नेतृत्व की भूमिका दी जानी चाहिए.
5. साम्प्रदायिकता का उन्मूलन किया जाना चाहिए.
6. निष्पक्ष एवं जिम्मेदार मीडिया सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
7. लोकतंत्र में जिम्मेदार विपक्ष का होना बहुत जरुरी है. इसलिए एक रचनात्मक विपक्ष होना चाहिए.
8. लोकतंत्र में निर्वाचित सदस्यों अर्थात् जनप्रतिनिधियों के कार्यों की निगरानी की भी व्यवस्था होनी चाहिए.

उनका मत था कि दुनिया में लोकतंत्र से श्रेष्ठ शासन प्रणाली नहीं हो सकती. व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास लोकतंत्र में ही हो सकता है. अंबेडकर ने राजनीति में लोकतंत्र को एक जीवन मार्ग के रूप में अपनाने पर जोर दिया है. उन्होंने कहा कि यदि राजनीति में समता, न्याय, शोषणविहीन समाज की स्थापना करनी है तो लोकतंत्र को एक मार्ग के रूप में अपनाना ही होगा.

डॉ. अंबेडकर राजकीय समाजवाद के पक्षधर थे. इस लिए भूमि के राष्ट्रीयकरण के साथ ही सार्वजनिक व सरकारी उद्योगों, संस्थाओं और उपक्रमों के निर्माण पर उनका जोर रहता था. आज संविधान द्वारा दलितों, पिछड़ों को दिए गए आरक्षण के माध्यम से आगे बढ़ने के इन सभी क्षेत्रों को मोदी सरकार कौड़ियों के भाव अपने चहेते कॉरपोरेट को लुटा रही है. दूसरी तरफ इससे प्रभावित हो रहे भारत के सबसे उत्पीड़ित, शोषित वर्ग का ध्यान भटकाने के लिए उनका कट्टर हिंदूकरण करने का अभियान चलाया जा रहा है. आज आरएसएस और भाजपा का पूरा जोर देश के दलितों को अपनी हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति का मोहरा बनाने पर केंद्रित है. साल भर चलने वाली कांवड़ यात्राएं हों, लुटेरे-हत्यारे गोरक्षा दल हों, रामनवमी या हनुमान दिवस के हथियारबंद मुश्लिम विरोधी उत्तेजित जुलूस हों,  सब में दलित और पिछड़ी जातियों के बेरोजगार नौजवानों को इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसे में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा अपने लाखों समर्थकों के साथ ली गई इन 22 शपथों को याद कराने की बार-बार जरूरत है, ताकि शोषित-उत्पीड़ित वर्ग के नौजवानों को इन मनुवादी, कारपोरेट फासीवादी ताकतों की साजिशों का शिकार होने से बचाया जा सके.