वर्ष - 32
अंक - 15
08-04-2023

-- अरिंदम सेन

मोदी सरकार को अडानी घोटाले के अपराधियों के नाम खोलने होंगे और उन्हें दंडित करना पड़ेगा

24 जनवरी को हिंडनबर्ग रिसर्च ने जो विस्फोट किया, उससे न केवल उसके निशाने के परखचे उड़ गए, बल्कि अन्य अनेक व्यावसायिक इकाइयों और शेयर बाजार के छोटे खिलाड़ियों पर भी सिलसिलेवार नुकसानदेह असर पड़ा है, और उसने वित्तीय व राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है.

हिंडनबर्ग रिपोर्ट का मुख्य खुलासा यह है कि दुनिया भर में टैक्स से छूट वाली जगहों पर काम करने वाली कुछ कंपनियां ऐसी हैं जो केवल अडानी ग्रुप के शेयरों में निवेश करती रही हैं. आरोप है कि ये कंपनियां गौतम अडानी के बड़े भाई विनोद अडानी से जुड़ी हैं अथवा उनके ही नियंत्रण में चलती हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि इन निवेशों में भारतीय प्रतिभूति नियमों का घोर उल्लंघन हुआ है, क्योंकि ये निवेश ‘संबंधित इकाई’ द्वारा किए गए हैं जिसके चलते कंपनी के अंदरूनी निवेशकों/प्रमोटरों के अलावे अन्य निवेशकों के शेयरों की संख्या अनिवार्य न्यूनतम 25 प्रतिशत से भी कम रह गई. टैक्स से छूट वाली इन कंपनियों – शेल कंपनियों (ऐसी कंपनियां जिनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता है, ये कागजी होती हैं और हेराफेरी के लिए बनाई जाती हैं) – के बीच शेयरों की खरीद-बिक्री ने इस ग्रुप में सूचीबद्ध कंपनियों के मूल्यों में कृत्रिम रूप से भारी उछाल ला दिया. इसके अलावा, परिसंपत्ति आधार का काफी ऊंचा मूल्य दिखाकर इस ग्रुप ने खुद को दुनिया के सबसे धनी और तेजी से विकसित होते और इसीलिए सबसे भरोसेमंद ग्रुप के बतौर पेश किया, और सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि बंगलादेश, श्रीलंका, इजरायल और ऑस्ट्रेलिया में भी बुनियादी ढांचा निर्माण के क्षेत्र में काफी तादाद में ठेका हथिया लिया. अपने शेयरों की काफी बढ़ी हुई बाजार कीमत दिखाकर इसने अपने शेयर गिरवी रखकर भारतीय व विदेशी वित्तीय संस्थाओं से बहुत अधिक मात्रा में कर्ज भी हासिल कर लिया, जो इस घपलेबाजी के बगैर संभव नहीं हो पाता.

इसी तरह से भारतीय इतिहास में सबसे विशालकाय काॅरपोरेट साम्राज्य का निर्माण किया गया. भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली राजनेता के साथ हाथ मिलाकर विकसित हुए इस रहस्यपूर्ण, फरेबी और अनैतिक बिजिनेस माॅडल का भांडा तो आज-न-कल फूटना ही थाऋ हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने तो दूर से ही इस बारूदी ढेर के पलीते में आग लगाई है.

लगभग रातों-रात, अडानी ग्रुप की कंपनियों के पांव शेयर बाजार से उखड़ गए. हिंडनबर्ग रिपोर्ट के सामने आने के ठीक पहले अडानी ग्रुप की कुल संपत्ति 10 लाख करोड़ रुपया से भी ज्यादा थी; अब यह घटकर 3 लाख करोड़ रुपये रह गई है. नतीजतन, रियल-टाइम फोर्ब्स की 20 सबसे धनी व्याक्तियों की सूची से अडानी बाहर हो गए, जहां पहले वह दुनिया में तीसरे स्थान, और एशिया में प्रथम स्थान पर होते थे. विदेशों में अडानी की अनेक परियोजनाओं को रद्द कर दिया गया अथवा वे लटक कर रह गईं. बाद में कुछ कर्ज के समय-पूर्व भुगतान, और एलआइसी व बैंक ऑफ बड़ोदा जैसी सार्वजनिक क्षेत्र संस्थाओं और चंद व्यावसायिक संपर्कों व राजनीतिक संरक्षकों की मदद जैसे संकट-प्रबंधन उपायों से अडानी के शेयरों की कीमतें बढ़ीं, लेकिन अभी भी यह सब अस्थिर स्थिति में ही बना हुआ है.

हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने मोदी सरकार को भी कठघरे में खड़ा करते हुए आरोप लगाया कि अडानी ग्रुप की इन फरेबी तिकड़मों को “ऐसे वित्तीय नियंत्राण का संबल मिला है, जो वास्तव में हैं ही नहीं”. रिपोर्ट में यह भी टिप्पणी है कि अडानी ने “अपनी विपुल शक्ति का इस्तेमाल करके सरकार और अन्य नियामकों पर दबाव बनाया कि वे उनलोगों के पीछे पड़ जाएं जो अडानी से सवाल करते हैं”, और इस वजह से पत्रकार, नागरिक तथा राजनेता भी “अंजाम के खौफ से कुछ भी बोलने से डरते थे”.

इस प्रकार हिंडनबर्ग ने बड़ी पेशेवराना दक्षता से इस वित्तीय अपराध के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार काॅरपोरेट महाशक्ति के साथ-साथ उसके राजनीतिक गुरु, सहायक और सह-अपराधी पर भी चोट किया है. इसके जवाब में प्रमुख रणनीतिकार मोदी ने उस अमेरिकी फर्म (हिंडनबर्ग) के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा (वे जानते थे कि इससे इन अकाट्य आरोपों की तरफ और ज्यादा ध्यान खिंचेगा), लेकिन मोदी ने संसद के अंदर और बाहर विपक्ष की लानत-मलामत जरूर की है. स्पष्टतः, यह ध्यान भटकाने की ही एक चाल है.

लड़ाई शुरू हुई

लेकिन अडानी के लिए यह कोई उपाय नहीं था, उसे आपने निवेशकों को आश्वस्त करना था.  अतः उसके मामले में तो हमला ही बचाव का सर्वोत्तम उपाय था. इसीलिए, हठी अडानी ने तुरत पलटवार करते हुए 437 पृष्ठों का एक जवाब (हिंडनबर्ग की अत्यंत संक्षिप्त रिपोर्ट का लगभग 4-गुना बड़ा जवाब) भेजा जो कानूनी कार्रवाई की उसकी सुपरिचित धमकियों से भरा हुआ था. अमेरिका-आधारित फर्म ने फौरन इसका मुंहतोड़ उत्तर दिया.

“हमारे द्वारा रिपोर्ट जारी करने के बाद इन 36 घंटे में अडानी ने उठाए गए किसी भी मूल मुद्दे पर कुछ नहीं कहा है. इसके बजाय जैसी कि उम्मीद थी, अडानी ने डराने-धमकाने का सहारा लिया.... अडानी ने हमारे 106 पृष्ठों, 32000 शब्दों वाली रिपोर्ट, जिसमें 720 उद्धरण हैं और जिसे 2 वर्ष में तैयार किया गया है, को ‘बिना शोध वाला’ घोषित कर दिया, और कहा कि अडानी ग्रुप ‘हमारे खिलाफ उपचार और दंडात्मक कार्रवाई के लिए अमेरिकी व भारतीय कानूनों के तहत प्रावधानों की पड़ताल कर रहा है’. ... हम इसका स्वागत करेंगे. ... अगर अडानी वास्तव में गंभीर है, तो उसे अमेरिका में भी मुकदमा दायर करना चाहिए जहां से हम कार्य-संचालन करते हैं. हमारे पास दस्तावेजों की लंबी फेहरिस्त है जिसकी हम कानूनी जांच-पड़ताल की प्रक्रिया में मांग करेंगे.”

यह साफ तौर पर एक द्वंद्व युद्ध की ललकार थी. लेकिन अडानी के पास वह कुव्वत नहीं थी कि वह मुकदमा दायर करे, जैसा कि वह रवि नायर और परंजय गुहा ठाकुर्ता जैसे कार्यकर्ता-पत्रकारों तथा ईपीडब्लू व द वायर जैसी पत्रिकाओं के खिलाफ करता रहा है, क्योंकि इन लोगों के पास वह सामर्थ्य और पैसा नहीं है कि वे कई शहरों में चलने वाले लंबे व खर्चीले मुकदमे झेल सकें. इस मुकदमेबाज और गुस्सैल धन्नासेठ ने महसूस किया कि इस बार उसकी राह आसान नहीं है. इसीलिए गुजरात के इस सिंहराज ने अपनी दुम दबाकर झूठे राष्ट्रवाद का सहारा लिया. अपने गुरु से सीख लेते हुए उसने  इस रिपोर्ट को ‘भारत और भारतीय संस्थाओं की स्वतंत्रता, मर्यादा व गुणवत्ता पर एक सुचिंतित हमला’ बताकर उन्मादपूर्ण लोकप्रिय पलटवार पैदा करने की कोशिश की.

मोदीभक्तों और अडानी के वफादारों को इस समूहगान में गोलबंद किया गया. ‘इंडिया स्टैंड विथ अडानी’ और ‘इंडिया इंक सपोटर्स अडानी’ सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग करने लगे. लेकिन किसी भी विश्वसनीय प्रिंट अथवा डिजिटल मीडिया पर इस धन्नासेठ के बचाव में कोई गंभीर बात सामने नहीं आई. इसके बजाय, प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में और डिजिटल मंचों पर लगातार ऐसे लेख और साक्षात्कार आने लगे जिनमें इस हिंडनबर्ग भंडाफोड़ की मूलभूत बातों पर व्यापक चर्चा हुई और उसके दीर्घकालीन तात्पर्यों पर विचार हुआ.

स्वतंत्र विश्लेषकों का क्या कहना था

वालस्ट्रीट जर्नल ने स्वतंत्र रूप से हिंडनबर्ग के कतिपय दावों का समर्थन किया. उसने माॅरिशस-आधारित कंपनी ‘ट्रस्टलिंक इंटरनेशनल’ के साथ विनोद अडानी के संबंध का पता लगाया जिसमें माॅरिशस की दो अन्य इकाइयां भी शामिल हैं. ब्लूमबर्ग ने भी पाया कि विनोद अडानी और उनकी पत्नी रंजनबेन अडानी के नाम ‘एंडीभावर ट्रेड एंड इन्भेस्टमेंट’ के लाभुक स्वामी के बतौर दर्ज हैं, जो माॅरिशस-आधारित कंपनी है. अडानी ग्रुप ने स्विट्जरलैंड होलसिम से अंबुजा सीमेंट और एसीसी के अधिग्रहण में इस कंपनी का इस्तेमाल किया था. उसके बाद फोर्ब्स ने एक फीचर स्टोरी छापी जिसमें पहले से ही विदेश में मौजूद विनोद अडानी से जुड़े धन के अलिखित लेनदेन का खुलाया किया गया है और कहा गया है कि ‘यह अडानी ग्रुप के फायदे के लिए किया गया लेनदेन प्रतीत होता है’.

‘टाइम’ पत्रिका ने एक मुख्य आलेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था: “अडानी ग्रुप की मुश्किलें पूरे भारत में क्यों हड़कंप मचा रही हैं”. अरबपति निवेशक और ‘ओपेन सोसाइटी फाउंडेशन्स’ के संस्थापक जाॅर्ज सोरोस ने कहा कि मोदी और अडानी “घनिष्ठ संश्रयकारी हैं, उनकी नियति परस्पर गुंथी हुई है”, इसीलिए यह सामने आया मुद्दा “भारत के संघीय शासन पर मोदी की पकड़ को काफी हद तक कमजोर कर देगा.” सोरोस ने यह भी कहा कि इससे भारत में अत्यंत जरूरी सांस्थानिक सुधारों के लिए दरवाजा खुल जाएगा जो अंततः उस देश में लोकतांत्रिक पुनरोदय को जन्म देगा. उनकी इस छोटी टिप्पणी पर भारत सरकार ने भारी दुश्मनागत प्रतिक्रिया जाहिर की. स्पष्ट है कि भारत के शासकों को हर जगह खतरा मंडराता दिख रहा है.

न्यूयाॅर्क विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अश्वथ दामोदरन ने एक विस्तृत और धारदार विश्लेषण पेश किया है. जैसा कि ‘मनी कंट्रोल’ (1 मार्च 2023) ने रिपोर्ट की है, “अश्वथ दामोदरन ने कहा है कि समग्र रूप से अडानी ग्रुप, और खास तौर पर अडानी इंटरप्राइजेज ने बहुत ज्यादा कर्ज ले रखा है. ... ऊंचे स्तर के कर्ज से इस ग्रुप को फायदा से ज्यादा नुकसान ही हुआ है. ...

अडानी ग्रुप को जितना कर्ज लेना चाहिए था, उससे तीन गुना ज्यादा कर्ज यह ग्रुप ले चुका है. ...

दरअसल, इस कर्ज के इस्तेमाल से अडानी ग्रुप को मूल्य में वृद्धि के लिहाज से कोई फायदा नहीं हुआ है; यह तभी संभव हो सकता है जब कोई (सरकार, बैंकर अथवा ग्रीन बौंड-धारक) सब्सिडी में यह कर्ज दे. ...

किसी विकसित होते फर्म को अपनी वृद्धि के लिए पूंजी की जरूरत होती है, और यह पूंजी इक्विटी (हिस्सा पूंजी) जारी करने अथवा नए उधार लेने से आनी होती है.... जब फर्म चलाने वालों के लिए नियंत्रण मुख्य प्राथमिकता बन जाती है, तो वे सार्वजनिक रूप से शेयर जारी करने की बजाय पैसे उधार लेने का विकल्प चुन सकते हैं.”

हिंडनबर्ग रिपोर्ट से परे 
दामोदरन हमें एक अंतर्दृष्टि देते हैं

इजारेदार कंपनियां प्रायः अत्यधिक कर्ज का विकल्प क्यों चुनते हैं, जबकि वे जानते हैं कि यह ज्यादा महंगा और जोखिमभरा सौदा होता है ? इसके बजाय वे बाजार में इक्विटी क्यों नहीं जारी करती हैं, जबकि इसकी काफी मांग रहती है ? संक्षिप्त जवाब है: चरम वैयक्तिक और पारिवारिक नियंत्रण की चाहत. ठीक वैसे ही, जैसे कि कोई तानाशाह शासक हमेशा हर कुछ के ऊपर वैयक्तिक/वंश/छोटा ग्रुप प्रभुत्व को तरजीह देता है.

और इसी तरह से आमदनी व धन का संकेंद्रण एक छोटे ग्रुप (और अंततः एक सर्वसत्तावादी नेता) के हाथ में राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण के साथ-साथ आगे बढ़ता है. अडानी व अंबानी जैसे इजारेदार समूह काफी हद तक सार्वजनिक परिसंपत्तियों के निजीकरण, बाजार पर एकाधिकार और दमघोंटू प्रतियोगिता के आधार पर विकसित हुए हैं – इसने 2021 में सबसे धनी 1 प्रतिशत भारतीयों के हाथ में देश के समस्त धन का 40 प्रतिशत हिस्सा समेट दिया. यह चरम असमानता चरम लोकतांत्रिक क्षरण, असीम भ्रष्टाचार और व्यापक जनता की बेहिसाब तकलीफों के साथ आती है. कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:

मोदी-अडानी कोयला घोटाला

यूपीए शासन काल में हुए ‘कोलगेट’ घोटाले को याद कीजिए. 2014 में सर्वोच्च न्यायालय की एक रूलिंग ने राज्य सरकार के स्वामित्व वाली कंपनियों को 204 कोयला ब्लाॅकों के गैरकानूनी/अनियमित आवंटन को रद्द कर दिया, क्योंकि उसके बाद यह अति-लाभकारी व्यवसाय गुप्त अनुबंध के तहत छिपे तौर पर निजी कंपनियों को सौंप दिया जाता. उसी वर्ष सत्ता संभालने के बाद मोदी सरकार ने कोयला खनन के क्षेत्रा में साफ-सुथरा और पारदर्शी प्रबंधन देने का वादा किया. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की रूलिंग से अलग हटकर और बहुतेरी अन्य निजी कंपनियों को वंचित करते हुए मोदी सरकार ने गुप्त प्रशासकीय फैसलों और तिकड़मों के जरिये अडानी ग्रुप को छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कोयला खनन जारी रखने की इजाजत दे दी.

भारत में टैक्स लाभ, बंगलादेश में अति-मुनाफा

लोकसभा चुनाव की तिथियां घोषित होने के ठीक 12 दिन पहले, 25 फरवरी 2019 को मोदी सरकार ने झारखंड में भारत की ऐसी पहली बिजली परियोजना के बतौर अडानी प्रोजेक्ट के लिए रास्ता साफ कर दिया जिसे अतिशय लाभ (पहले पांच वर्षों तक आयकर में शत प्रतिशत की छूट तथा काॅरपोरेट टैक्स, आबकारी शुल्क, राज्य सामग्री व सेवा कर से छूट आदि) और स्पेशल इकाॅनोमिक जोन (सेज) की हैसियत दी गई. ऐसा करने के लिए वाणिज्य मंत्रालय ने उस वर्ष की शुरूआत में ‘सेज’ के लिए बिजली से संबंधित गाइडलान को बदल दिया. दूसरी ओर, बंगलादेश को बिजली खरीदने के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही थी, क्योंकि दोनों देशों के बीच का समझौता काफी भेदभावपूर्ण था. प्रख्यात अर्थशास्त्री, लोकप्रिय बुद्धिजीवी, संपादक और राजनीतिक कार्यकर्ता प्रो. अनु मोहम्मद ने साफ-साफ कहा, “स्पष्टतः यहां कोई समझौता था ही नहीं. अडानी तमाम शर्तें थोपता था और बंगलादेश अपने राजनीतिक हितों के लिए उसकी शर्तों को मान रहा था.” यहां अडानी पर मोदी का वरदहस्त साफ देखा जा सकता है.

स्वाभाविक रूप से बंगलादेश में अडानी प्रोजेक्ट को लेकर काफी विक्षोभ है. इसी तरह के अर्ध-औपनिवेशिक शोषण की मिसाल दूसरे पड़ोसी देश में भी दुहराई गई. श्रीलंका में पिछले वर्ष के जून माह में ‘अडानी को रोको’ प्रतिवाद देखा गया. यह प्रतिवाद तब भड़का जब श्रीलंका के सिलोन बिजली बोर्ड के अध्यक्ष एमएमसी फर्डिनांडो ने संसदीय पैनल को सूचित किया कि उन्हें राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्ष ने बताया कि प्रधान मंत्री मोदी मन्नेर में वायु बिजली परियोजना को सीधे अडानी ग्रुप को सौंपने के लिए उनपर दबाव बना रहे थे. बाद में, फर्डिनांडो ने (जाहिरन दबाव में आकर) अपना वक्तव्य वापस ले लिया और अपना इस्तीफा भी दे दिया.

जवाबदेही मोदी की है. उन्हें उत्तर देना होगा

अगर हम प्रेस जगत पर नजर डालें तो राष्ट्र के साथ की गई धोखाधड़ी और गहरी दिखाई पड़ेगी. हिंडनबर्ग रिसर्च ने पहले ही कहा है कि एलारा इंडिया ऑपरचुनिटी फंड – एक उपक्रम फंड जो एलारा कैपिटल द्वारा प्रबंधित फंड है – समेत तीन फंड अडानी ग्रुप स्टाॅक की चक्करदार ट्रेडिंग और बाजार हेराफेरी में संलग्न हैं. ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने कुछ अतिरिक्त जानकारियां दी हैं. ‘अडानी डिफेंस’ के साथ-साथ एलारा एक प्रतिरक्षा कंपनी – बंगलोर में स्थित अल्फा डिजाइन टेक्नोलाॅजीज लिमिटेड (एडीटीपीएल) – में एक प्रमोटर इकाई है. यह एडीटीपीएल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन तथा प्रतिरक्षा शोध और विकास संगठन के साथ मिलकर काम करता है, और भारत सरकार के साथ उसका 590 करोड़ रुपये का अनुबंध है. इसके तात्पर्य बड़े खतरनाक हैं. जब कोई संदिग्ध विदेशी उपक्रम दागदार अडानी कंपनी के साथ मिलकर संवेदनशील डीआरडीओ और इसरो के कामकाज तक पहुंच बना ले, तो क्या भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा नहीं पैदा हो जाएगा ?

इस विशाल घोटाले की समुचित जांच करवाने की बजाय यह सरकार जांच को रोक देने अथवा उससे बचने की ही हरचंद कोशिश कर रही है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित जांच पैनल स्वागतयोग्य है, किंतु उसका सरोकार सिर्फ निवेशकों की सुरक्षा को लेकर है, इस बुनियादी सवाल पर नहीं कि क्या इस घोटाले के पीछे मोदी-अडानी रिश्ता मौजूद है, जैसा कि हिंडनबर्ग का आरोप है ? इसीलिए यह हम, भारत के लोग, पर है कि सरकार पर दबाव बनाकर उसे न सिर्फ इस खास घोटाले के लिए, बल्कि हमारे देश में क्रोनी पूंजीवाद के विनाशकारी उत्थान के लिए भी जवाबदेह ठहराया जाए.

2003-2014: विकास के तथाकथित गुजरात माॅडल का उदय

2002 के दंगों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बतौर मोदी की भूमिका के चलते भारत के कई बड़े-बड़े व्यवसायी मोदी की राष्ट्रव्यापी और विश्वव्यापी आलोचना में शामिल हो गए थे. और, यह बिल्कुल स्वाभाविक था, क्योंकि सांप्रदायिक व अन्य सामाजिक मुद्दों पर अपने व्यक्तिगत विचारों से परे, व्यवसाइयों के बतौर वे हमेशा शांतिपूर्ण विधि-व्यवस्था की मांग करते हैं. लेकिन गौतम अडानी, जो उस समय एक गुमनाम हीरा-जवाहरात व्यापारी था, ने अपना कारोबार चमकाने के लिए चतुराई के साथ उस मौके का फायदा उठाया. उभरते धनी उद्योगपति मुकेश अंबानी समेत अन्य गुजरातियों के साथ मिलकर अडानी ने गुजरात सरकार को 2003 में नवरात्रि के दौरान “वायब्रेंट गुजरात: वैश्विक निवेशक शिखर सम्मेलन” आयोजित करने में भरपूर मदद की. यह शिखर सम्मेलन एक नियमित द्विवार्षिक परिघटना बन गया, और इसने मोदी को खून में सने हाथ की छवि से निकलकर आधुनिक आर्थिक प्रगति के व्यवसाय-परस्त नायक – ‘गुजरात माॅडल’ के निर्माता – की छवि घारण करने का मौका दिया. अन्य लोगों के अलावा अडानी को काफी लाभकारी रियायतें दी गईं जिससे उसकी संपत्ति और हैसियत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी.

2014-2022: ‘गुजरात माॅडल’ को उन्नत कर ‘न्यू इंडिया’ तक विस्तारित करना

प्रांतीय माॅडल को राष्ट्रीय स्तर पर अनुकूल बनाने के लिए उसमें काफी सुधार की जरूरत थी. आरएसएस के दिशानिर्देशन और सक्रिय समर्थन के साथ मोदी ने राजनीतिक मोर्चे पर बदलाव लाया: आक्रामक हिंदू राष्ट्र के निर्माण की परियोजना को आगे बढ़ाना; अंबानी, अडानी और कंपनी को आर्थिक एजेंडा का प्रतिनिधि बनाना; ‘राष्ट्रीय समृद्धि’ के मार्ग के बतौर सार्वजनिक उपक्रमों समेत जो कुछ भी है, उसका काॅरपोटीकरण करना. 2018 में भारत सरकार ने एक विवादास्पद फैसला लेकर अडानी को 6 हवाई अड्डे सौंप दिए, जबकि उसे इस क्षेत्रा में पहले से कोई अनुभव नहीं था. इस फैसले ने उसके ग्रुप को रातोंरात देश का सबसे बड़ा निजी हवाई अड्डा संचालक बना दिया. अडानी ने देश में बंदरगाह, सड़क, रेलवे, जीवाश्म इंधन और ग्रीन ऊर्जा के क्षेत्र में सबसे अधिक संख्या में सरकारी ठेका हथिया लिया. मोदी ने इसे ‘राष्ट्र निर्माण’ घोषित किया, और तभी से अडानी इस मंत्र का जाप कर रहा है. इस प्रकार, अडानी ने अन्य किसी की भी तुलना में अपने बिजिनेस माॅडल का मोदी ब्रांड की राजनीति के साथ बेहतर ढंग से तालमेल बिठा लिया. और, इसी में उसके अति द्रुत व अत्यधिक सफलता की कुंजी छिपी हुई है.

जनवरी 2023 – मुसीबत में जोड़ी

महत्वपूर्ण लोकसभा चुनावों के लगभग एक वर्ष पहले और बीबीसी डाक्युमेंटरी के प्रकाशन के बाद ही हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने मोदी-अडानी माॅडल के सामने एक गंभीर चुनौतर खड़ी कर दी. भारतीय और वैश्विक अर्थतंत्रों में पैदा हुई विपरीत परिस्थितियों के तहत और ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के ताजातरीन खुलासों के बाद आने वाले महीनों में ये मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं.


अडानी साम्राज्य का निर्माण: युगलबंदी जरूरी थी

अडानी के उत्थान की अत्यंत तेज गति की कैसे व्याख्या की जाए ? इसका उत्तर क्रोनी पूंजीवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र में निहित है – वह पूंजीवाद जो क्षयमान इजारेदार पूंजीवाद का सबसे घृणित और विनाशकारी रूप है, जैसा कि व्लादिमिर ईल्यिच लेनिन ने पूंजीवाद की साम्राज्यवादी अवस्था की आर्थिक सारवस्तु के बतौर परिभाषित किया था. मोदी के नेतृत्व में भारत में यह अपने चरम पर पहुंच चुका है.

इस कड़वी कहानी के तीन खंड साफ-साफ देखे जा सकते हैं.