वर्ष - 32
अंक - 18
29-04-2023

23 अप्रैल 1930 की घटना इस देश की आजादी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी. इस दिन पेशावर में चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली फौज ने देश की आजादी के लिए लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था. यह देश की आजादी की लड़ाई और आज के लिहाज से भी कहें तो एक राष्ट्रीय महत्व की घटना थी. लेकिन यह अफसोसजनक है कि चूंकि इस घटना को अंजाम देने वाली गढ़वाली फौज और उनके अगुवा चंद्र सिंह गढ़वाली थे, इसलिए इसका राष्ट्रीय प्रभाव और महत्व स्वीकारने और महसूस करने के बजाय इसे गढ़वाल के लोगों के लिए गर्व करने के मौके जैसे रूप में सीमित कर दिया गया है.

आज हम इस देश में जिस सांप्रदायिक विभाजन और उसको बढ़ावा देने वाली राजनीति को परवान चढ़ते हुए देख रहे हैं, उस सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति की बुनियाद अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने डाली थी. 1857 की बगावत से अंग्रेजों ने यह सबक सीखा था कि हिन्दू-मुसलमान को लड़ा कर ही इस देश में टिके रहा जा सकता है. ‘फूट डालो, राज करो’ का सूत्रा उन्होंने इसी काम के लिए ईजाद किया था.

पेशावर में भी अंग्रेजों ने गढ़वाली फौज को इसी मंशा से तैनात किया था ताकि पठानों पर गोली चलाने के लिए हिन्दू धर्मावलम्बी गढ़वाली फौजियों को उकसा कर पठानों पर गोली चलवाई जा सके. इसीलिए पेशावर में पठानों पर गोली चलाने के लिए गढ़वाली फौजियों को उकसाते हुए अंग्रेज अफसर ने कहा – ‘पेशावर में 94 फीसदी मुसलमान हैं, दो फीसदी हिन्दू हैं. मुसलमान हिन्दू की दुकानों में आग लगा देते हैं, लूट लेते हैं. शायद हिन्दुओं को बचाने के लिए हमें बाजार जाना पड़े और इन बदमाशों पर गोली चलानी पड़े.’ यह आज से 93 वर्ष पूर्व की घटना है. आज 93 साल बाद भी क्या इसी तरह के उकसावे पूर्ण वक्तव्यों और अफवाहों से हमारे देश में दंगों की वारदात नहीं होती हैं? लेकिन चंद्र सिंह गढ़वाली अंग्रेज अफसर की उकसावे पूर्ण बातों में नहीं आये बल्कि उन्होंने अपने साथियों को समझाया – ‘इसने जो बातें कहीं, सब झूठ हैं. हिन्दू-मुसलमान के झगडे में रत्ती भर सच्चाई नहीं है. न ये हिन्दुओं का झगड़ा है, न मुसलमानों का. झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का. जो कांग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उन के ऊपर गोली चलानी चाहिए? हमारे लिए गोली चलाने से अच्छा होगा कि अपने को गोली मार लें.’ ये अशिक्षित फौजी थे, जिन्होंने देवनागरी पढ़ना भी बड़े जतन से सीखा था. लेकिन देश की आजादी के लिए लड़ने वाले वाले दूसरे धर्म के मानने वालों पर भी गोली चलाने से बेहतर वे स्वयं को गोली मारना समझ रहे थे. आज जब हाशिमपुरा के पीड़ितों के लिए, न्याय के लिए चिल्लाते देश में, वीरता मेडलों के लिए निर्दाेषों को भी तथाकथित मुठभेड़ों में मार गिराने वाले समय में, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट-1958 को किसी को भी गोली मारने और यहां तक कि बलात्कार करने के लिए कायम रखने के लिए अड़ने वाले सैन्य बलों और उनके अंध समर्थकों के दौर में, क्या कोई ये कल्पना भी कर सकता है कि 93 वर्ष पूर्व अंग्रेजों की फौज में मामूली सैनिकों ने अपने से इतर धर्म को मानने वालों पर तमाम उकसावों और लोभ-लालच को धता बताते हुए गोली चलाने से इनकार कर दिया था? और ऐसा फैसला उन्होंने किसी आवेश में नहीं लिया था, बल्कि ऊपर दिए गए बातचीत के ब्यौरे से स्पष्ट है कि अंग्रेजों के मंसूबे को भांपते हुए पहले से सोच-विचार कर और ऐसा करने का अंजाम भांपते हुए भी गोली न चलाने का दृढ इरादा कर लिया था. इसकी कीमत भी इन्होने चुकाई. गोली न चलाने के लिए कोर्ट मार्शल हुआ, काले पानी की सजा दी गयी और तनख्वाह-पेंशन आदि सब जब्त कर लिया गया.

आज साम्प्रदायिक उन्माद देश में चहुँ ओर फैलता हुआ नजर आता है और पुलिस व सैन्य बलों और सुरक्षा एजेंसियां उससे अछूती नहीं है. लेकिन देश की आजादी की लड़ाई में बार-बार सैन्य बलों ने सांप्रदायिक सौहार्द के परचम को बुलंद किया. 1857 की पहली जंगे-आजादी में हिन्दू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े.जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि हिन्दू-मुस्लिमों की इस एकता से ही अंग्रेजों ने यह सबक सीखा कि भारत में हिन्दू-मुसलमान में फूट डाले बगैर, उनकी जड़ें जमना नामुमकिन है. इस देश में सैन्य बलों के भीतर हुई एक और महत्वपूर्ण, लेकिन कम चर्चित बगावत थी-1946 का नौसेना विद्रोह. यह विद्रोह नाविकों में मेहनतकशों वाली चेतना के लिहाज से भी बेमिसाल था. नौसेना विद्रोह में शामिल नाविकों ने भी साम्प्रदायिक विभाजन के अंग्रेजी हथकंडे को धता बताया. उन्होंने सांप्रदायिक एकता का संदेश देने के लिए ही अपनी 36 सदस्यीय नौसेना हड़ताल समिति का अध्यक्ष एक मुस्लिम नाविक- सिग्नलमैन एमएस खान को बनाया व एक सिख टेलेग्राफ ऑपरेटर मदन सिंह को उपाध्यक्ष चुना. 1857 की पहली जंगे आजादी के बाद पेशावर विद्रोह इस श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी था, जहां सैनिकों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा कर भी अंग्रेजों के सांप्रदायिक विभाजन के एजेंडे को पूरा नहीं होने दिया.

पेशावर विद्रोह के नायक चंद्र सिंह गढ़वाली जेलों में रहते हुए कम्युनिस्टों के संपर्क में आये और फिर आजीवन कम्युनिस्ट हो गए. जनता के हकों के लिए लड़ते हुए उन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया. सत्ता और उसका सुख पाने के लिए सिद्धांतों से समझौता करने से उन्होंने इनकार कर दिया. जीवन पर्यंत वे एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट बने रहे.

आज जब हम दंगाईयों को राजनीति का सिरमौर बनता हुआ देख रहे हैं, आये दिन सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए ‘घर वापसी’, ‘लव जेहाद’ आदि-आदि नित नए शिगूफे और उकसावेपूर्ण वक्तव्यों का जहर झेल रहे हैं, तब कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली की अगुवाई में हुआ पेशावर विद्रोह, इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब और सांप्रदायिक सौहार्द की प्रेरणा देता हुआ देश की आजादी की लड़ाई का एक गौरवशाली व शानदार अध्याय है.

– इन्द्रेश मैखुरी