वर्ष - 32
अंक - 14
01-04-2023

बीते दिनों उच्चतम न्यायालय ने दो पुनर्विचार याचिकाओं और कुछ हस्तक्षेप प्रार्थना पत्रों को खारिज कर दिया. उक्त पुनर्विचार याचिकाएं, उच्चतम न्यायालय के 7 नवंबर 2022 के फैसले पर पुनर्विचार हेतु लगाई गयी थी.

7 नवंबर 2022 को उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यूयू ललित, न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी की खंडपीठ ने 9 फरवरी 2012 को दिल्ली में दफ्तर से लौट रही किरण नेगी के हत्याकाण्ड, अपहरण, सामूहिक बलात्कार के तीन आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था. गौरतलब है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट और दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन आरोपियों को मृत्यु दंड की सजा सुनाई थी.

उच्च्तम न्यायालय द्वारा आरोपियों को बरी किए जाने के बाद न केवल हत्या और सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराध का शिकार हुई मृतका के परिजनों ने अपने को ठगा हुआ महसूस किया, बल्कि न्याय की आस लगाए उत्तराखंड के लोग भी हतप्रभ थे.

उच्चतम न्यायालय के 7 नवंबर 2022 के फैसले के विरुद्ध दिल्ली सरकार और मृतका के पिता – कुंवर सिंह नेगी ने पुनर्विचार याचिका दाखिल की. साथ ही, सामाजिक कार्यकर्ता योगिता भयाना, उत्तराखंड बचाओ आंदोलन और उत्तराखंड लोक मंच ने भी उक्त मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल करने के लिए अनुमति याचिका उच्चतम न्यायालय के समक्ष पेश की.

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डाॅडीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एस रविंद्र भट्ट और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने उक्त सभी पुनर्विचार याचिकाओं एवं अनुमति याचिकाओं को खारिज कर दिया.

दिल्ली सरकार और मृतका के पिता की पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने लिखा – ‘फैसले और रिकाॅर्ड में मौजूद अन्य दस्तावेजों को देखने के बाद हमें इस न्यायालय के फैसले में ऐसी कोई तथ्यात्मक एवं कानूनी खामी नजर नहीं आई, जिस पर पुनर्विचार की आवश्यकता हो.’

सामाजिक कार्यकर्ता योगिता भयाना, उत्तराखंड बचाओ आंदोलन और उत्तराखंड लोक मंच की अनुमति याचिकाओं को भी उच्चतम न्यायालय ने सिरे से खारिज कर दिया.

उक्त पुनर्विचार एवं अनुमति याचिकाओं को खारिज होने के साथ ही किरण नेगी प्रकरण में न्याय की जो बेहद धुंधली आस थी, वह भी समाप्त हो गयी.

पुनर्विचार याचिकाओं के खारिज होने से पुनः कुछ सवाल खड़े होते हैं.

प्रश्न यह है कि उक्त मामले में जो युवती अब इस दुनिया में नहीं है, क्या वह सामूहिक बलात्कार और हत्या की शिकार हुई थी या नहीं?

यदि जांच की खामियों की सजा आरोपियों को नहीं मिलनी चाहिए तो क्या उन खामियों के आधार पर जान गंवाने वाली पीड़िता को न्याय से वंचित किया जाना चाहिए?

क्या उक्त प्रकरण में हुआ फैसला महिलाओं और युवतियों के विरुद्ध हिंसा करने वालों के भीतर कानून का भय पैदा करेगा या उनको यह साहस देगा कि जघन्य अपराध करके भी कानूनी पेचीदगियों के सहारे, वे आसानी से बच निकल सकते हैं?

और सबसे जरूरी सवाल, जिसका उत्तर अभी भी नहीं मिला है कि अगर उक्त युवती की हत्या के आरोप में जिनको बरी किया गया, वे हत्यारे और बलात्कारी नहीं तो फिर हत्यारे और बलात्कारी कौन हैं? क्या न्याय का तकाजा यह नहीं है कि उनको खोज कर कानून सम्मत सजा दिलवाई जाये?

इन सवालों पर उक्त मामले में फैसला सुनाते समय और पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज करते समय विचार किया जाना चाहिए था. अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ.

कानूनी नुक्तों के आधार पर पुनर्विचार याचिकाओं का फैसला हो गया, लेकिन न्याय की आस पूरी तरह से ध्वस्त हो गयी!

– इन्द्रेश मैखुरी