वर्ष - 32
अंक - 32
05-08-2023

मणिपुर तीन महीने से जल रहा है. इन तीन महीनों की लगातार हिंसा ने 60 हजार से ज्यादा लोगों को अपने ही राज्य में बेघर कर दिया है. जहां इस हिंसा की कहानियों और समय-समय पर आनेवाले वीडियो क्लिप्स ने दुनिया भर का ध्यान आकृष्ट किया है, वहीं विश्व-भ्रमण करने वाले भारत के प्रधान मंत्री को अबतक मणिपुर जाने का समय नहीं मिल सका है. उन्होंने संसद में अथवा सोशल मीडिया पर भी मणिपुर के बारे में कुछ भी बोलने से इन्कार कर दिया है; और सिर्फ एक मौके पर जब उन्होंने मणिपुर में भयावह भीड़ हिंसा और यौन हमले के वायरल वीडियो क्लिप की चर्चा की, तो उन्होंने इस हिंसा को गैर-भाजपा शासित राज्यों में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की मुक्तलिफ मामलों के साथ जोड़कर इसे अत्यंत सामान्य बना दिया, और इस प्रक्रिया में अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाने के राज्य-प्रायोजित प्रयासों के संदर्भ से उसे अलग कर दिया. संसद के मानसून सत्र के पहले दिन से ही सरकार मणिपुर के बारे में संसद में चर्चा कराने से भागती रही है. विपक्ष को यह चर्चा कराने के लिए अ-विश्वास मत का प्रस्ताव लाना पड़ा, लेकिन सरकार ने इसे भी सत्र के समापन की ओर धकेल दिया है.

जहां पीएम मोदी और उनकी सरकार संसद में मणिपुर पर कोई भी बहस कराने से बचते फिर रहे हैं, वहीं सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को न्यायपालिका के सम्मुख आने को बाध्य कर दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने ‘डबल इंजन’ सरकारों की स्पष्ट नाकामयाबी के बारे में साफ-साफ सवाल किए हैं; और मोदी सरकार के टालू, संवेदनहीन व लापरवाह जवाबों ने मणिपुर सरकार के साथ-साथ मोदी सरकार की भी संलिप्तता को उजागर कर दिया है, जिसने धारा 355 के तहत उस राज्य में अधिकांश प्रशासन को अपने हाथ में ले रखा है. मणिपुर मामले की सुनवाई कर रही भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसे मणिपुर में विधि व्यवस्था के पूर्ण विध्वंस की संज्ञा दी है. अब यह देखना बाकी है कि सर्वोच्च न्यायालय एक ऐसे संदर्भ में कैसे न्याय देना चाहती है, जहां अल्पसंख्यक कुकी समुदाय नस्ली सफाया की राज्य-प्रायोजित मुहिम का दंश झेल रहा है जिसमें व्यापक हत्या, विस्थापन और यौन हिंसा को उचित बताने के लिए ‘अवैध आप्रवासन’, ‘आतंकवाद’ और ‘अपराधी-प्रवृत्ति’ के जाने-पहचाने संघी शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है.

आगामी महत्वपूर्ण लोकसभा चुनावों के पहले राज्य-प्रायोजित हिंसा को एक बार फिर देश के अन्य अनेक हिस्सों में फैलते देखा जा सकता है. उत्तर प्रदेश व हरियाणा में और जयपुर-मुंबई सुपरफास्ट ट्रेन में गोलीबारी की तीन अलग-अलग खबरें इस पैटर्न के खतरनाक दृष्टांत प्रस्तुत करती हैं. भाजपा काफी लंबे समय से हरियाणा के मेवात को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा की एक दूसरी प्रयोगशाला बना देने का प्रयास कर रही है. मुस्लिम-बहुल नुह इलाके से होकर विहिप ने एक उकसावामूलक जुलूस निकाला. एक वीडियो पोस्ट के जरिये इस जुलूस का आह्वान बजरंग दल के फरार गुंडे मोनू मनेसर ने किया था जो इस वर्ष के फरवरी माह में नासिर और जुनैद की हत्या का मुख्य आरोपी है – इसी वीडियो ने दंगा-फसाद फैलाया जिसमें होमगार्ड के दो सदस्यों समेत तीन लोगों की मौत हो गई. देर गए उसी रात में गुरुग्राम के सेक्टर 57 में मौजूद अंजुमन जामा मस्जिद में आग लगा दी गई जो सरकार द्वारा आबंटित जमीन पर एकमात्र मस्जिद है जहां शहर के मुस्लिम नमाज अदा करते थे; मस्जिद के 19-वर्षीय उप-इमाम की नृशंस हत्या भी कर दी गई. इस मस्जिद पर पहले भी कई बार हमले किए जा चुके थे.

उत्तर प्रदेश के बरेली में भी इसी किस्म की सांप्रदायिक हिंसा दिखलाई पड़ती, लेकिन पुुलिस की सतर्क मौजूदगी और समय पर की गई कार्रवाई के चलते यह हिंसा नहीं हो सकी. अनधिकृत रास्तों से होकर कांवरियों को जुलूस निकालने से रोक दिया गया, लेकिन अब इसमें शामिल पुलिसकर्मियों के खिलाफ बदले की कार्रवाई की जा रही है. दो पुलिसकर्मियों को निलंबित किया गया है और वरीय आरक्षी अधीक्षक प्रभाकर चौधरी का तबादला कर दिया गया – यह उनके सेवाकाल में किया गया 21वां तबादला है जिसे बतौर एक सजा समझा जा सकता है. मोदी के ‘न्यू इंडिया’ में योगी आदित्यनाथ के ‘बुलडोजर राज’ के अंतर्गत एक पुलिस अधिकारी को कानून का राज बहाल रखने की यह कीमत चुकानी पड़ती है. वस्तुतः, मोदी-शाह के गुजरात माॅडल से लेकर आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश और बीरेन सिंह के मणिपुर तक भीड़ हिंसा और अनेक स्तरों पर राज्य की संलिप्तता भाजपा-नीत शासन का प्रतीक-चिन्ह बन गई हैं.

बहरहाल, जयपुर-मुंबई ट्रेन में गोलीबारी ने भारत को आतंकी हिंसा के बिल्कुल नए स्तर पर पहुंचा दिया है. दिल दहला देने वाले एक वीडियो में रेलवे सुरक्ष बल का एक जवान चलती गाड़ी के अलग-अलग बोगियों में अपने अधिकारी और तीन मुस्लिम यात्रियों को गोली मारते दिख रहा था और वह आरोप लगा रहा था कि वे सब पाकिस्तानी एजेंट थे; साथ ही वह लोगों से कह रहा था कि वे अगर भारत में रहना और वोट देना चाहते हैं तो उन्हें मोदी व योगी का समर्थन करना होगा. वह वीडियो मुख्यधारा मीडिया, खासकर गोदी मीडिया के प्राइमटाइम शो में निरंतर नफरती प्रचार तथा संघ ब्रिगेड के आईटी सेल के द्वारा नफरत-भरे झूठों की संगठित मुहिम के अभूतपूर्व स्तर के असर को दिखला रहा था. टीवी चैनलों द्वारा नफरती मुहिमों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद गोदी मीडिया लगातार बड़े पैमाने पर जहर उगल रहा है. सरकार और गोदी मीडिया ने आनन-फानन जयपुर-मुंबई ट्रेन गोलीबारी को मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति की एक हरकत बताकर चलता कर दिया. उनका सारा ध्यान हरियाणा में हिंसा पर केंद्रित था जहां मुस्लिमों को ‘पत्थरबाज’ व दंगाई बताया गया – एक चैनल में तो ‘स्थायी इलाज’ की चीख-पुकार भी मचाई गई जो हमें नाजी जर्मनी के ‘अंतिम समाधान’ की याद दिलाती है जिसके लिए 60 लाख यहूदियों तथा लाखों की तादाद में रोमा लोगों, कम्युनिस्टों और अन्य लोगों का कत्लेआम किया गया था.

पांच वर्ष पूर्व 2019 के चुनावों के पहले मोदी शासन और संघ-भाजपा ब्रिगेड के फासीवादी हमले के खिलाफ जनाक्रोश के स्पष्ट चिन्ह दिख रहे थे. भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीगढ़ के अपने मजबूत राज्यों में विधानसभा चुनाव हार गई थी. उसी के बाद पुलवामा हुआ था जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान एक आतंकी हमले में मारे गए थे, और फिर चुनावी परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया. आज देश जान रहा है कि अनेकानेक स्पष्ट चूकों के जरिये कैसे पुलवामा को घटित होने दिया गया था, और कैसे खुद प्रधान मंत्री ने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक को सरकार की उस विफलता पर खामोश रहने का निर्देश दिया था. आगामी चुनावों के पहले जनता का मोहभंग कहीं ज्यदा गहरा हो गया है और नफरत व झूठ, भय और विनाश के मौजूदा राज से मुक्ति की चाहत भी जमीन पर बढ़ती दिख रही है. नफरत और हिंसा की यह मुहिम सामाजिक धु्रवीकरण को धारदार बनाने और अस्थिरता का माहौल तैयार करने की मंशा से ही तेज की गई है, ताकि बदलाव की लोकप्रिय आकांक्षा को भटका दिया जा सके. मणिपुर से हरियाण तक चेतावनी की घंटी बिल्कुल साफ सुनाई दे रही है. हम भारत के लोग को इस चाल में बिल्कुल नहीं फंसना होगा और बदलाव की लड़ाई को जीत की मंजिल तक ले जाना होगा.