वर्ष - 32
अंक - 33
12-08-2023

- कुमार परवेज

बिहार की महागठबंधन सरकार ने 9 अगस्त को एक साल पूरे किए. यह एक साल न केवल बिहार बल्कि देश की राजनीति की दिशा तय करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ है. फरवरी 2023 में पटना में भाकपा(माले) के महाधिवेशन से विनाशकारी भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों की एकता का आह्वान तमाम अटकलबाजियों के बावजूद अब ‘इंडिया’ के रूप में ठोस शक्ल ले चुका है. भाकपा(माले) के महाधिावेशन के मंच पर ही पहली बार अधिकृत रूप से इस एकता की चर्चा हुई थी. फिर पटना में ही 23 जून 2023 को विपक्षी दलों की बैठक हुई, जिसमें 15 राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. बेंगलुरू की बैठक में यह संख्या बढ़कर 25 तक पहुंची. देश से भाजपा की विदाई को निश्चित करने के लिए विपक्षी दलों की इस एकता ने देश की तमाम लोकतांत्रिक ताकतों को राहत दी है. पटना, विपक्षी दलों के बीच एकता का सूत्र खोजने में एक बार फिर से कामयाब रहा है.

भाजपा पर कसी नकेल, प्रशासन पर कसने की जरूरत

बिहार की सत्ता से भाजपा की विदाई और नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार के गठन से इस एकता की शुरूआत हुई थी. यह याद रखना चाहिए कि हिंदी पट्टी में बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा अपने बूते अभी तक सरकार नहीं बना सकी है. उसे वैशाखी की जरूरत पड़ती रही है. ठीक ऐसे समय में जब भाजपा किसी भी सरकार को ताकत व पैसों के बल पर अनैतिक उपायों का सहारा लेकर उलट दे रही है, बिहार की सत्ता से उसकी बेदखली निसंदेह लोकतंत्र की उम्मीदों को जिंदा रखने वाली है. इसलिए, बिहार में भाजपा यहां की सरकार को अस्थिर करने के लिए और किसी भी प्रकार से यहां की सत्ता पर कब्जा कर लेने के लिए.बेचैन है और इसके लिए वह यहां भी हर तरह का तिकड़म करती रही है. रामनवमी में बिहारशरीफ व सासाराम में सांप्रदायिक उन्माद-हिंसा की घटनाएं हों या फिर मुर्हरम का समय, हर समय ऐसी कोशिशें की गई हैं. लेकिन ये कोशिशें व साजिशें अबतक असफल ही होती आई हैं. अपराध-हिंसा की बढ़ती घटनाओं के पीछे भी भाजपा किसी न किसी रूप में खड़ी है. भाजपाइयों के षड्यंत्र का भांडा फूट जा रहा है. इसे महागठबंधन सरकार की एक सफलता के रूप में देखा जा सकता है.

निस्संदेह, बिहार की सत्ता में भाजपा नहीं है, लेकिन 17 वर्षों तक वह सत्ता में थी. इसलिए सरकार बदल जाने के बावजूद प्रशासन का चाल-चरित्र अभी तक नहीं बदला है और न ही वे नीतियां बदली हैं जो भाजपा-जदयू शासन में चल रही थीं. गरीबों-दलितों के प्रति प्रशासन का वही भाजपाई-बुलडोजरवादी नजरिया अब तक बरकरार है. यह नीतीश सरकार के सामने एक गंभीर चुनौती है.

पोपुलर आंदोलनों की आवाज बनी भाकपा(माले)

सरकार का समर्थन करते हुए भी भाकपा(माले) जनता के मुद्दों को हल करने का दबाव सरकार पर अंदर-बाहर से बनाती रही है. कई मुद्दों पर सड़क पर उतरकर उसने अपना विरोध जताया है और एक नई किस्म की राजनीति का प्रयोग बिहार में चला रही है. भाकपा(माले) ने नीतीश कुमार का भाजपा से नाता तोड़ने के बाद महागठबंधन में आने का स्वागत किया था, लेकिन वह मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुई. उसने कहा था कि वह सरकार व जनता के बीच सेतु का काम करती रहेगी.

जहरीली शराब में मुआवजा

यह जनांदोलनों का दबाव ही रहा कि नीतीश कुमार को शराबबंदी काूनन पर अपनी नीति बदलनी पड़ी. जहरीली शराब राज्य के अंदर अभी तक सैकड़ों जान ले चुकी है. सरकार ने अंततः जहरीली शराब से मारे गए लोगों के परिजनों को मुआवजा देने की घोषणा की. जरूरत इस बात की भी है कि शराबबंदी कानून के नाम पर राज्य के विभिन्न जेलों में लाखों की तादाद में बंद दलित-गरीबों को भी अविलंब रिहा किया जाए और सरकार उनके पुनर्वास के प्रति गंभीर हो.

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शिक्षकों के मसले पर वार्ता को तैयार हुई सरकार

इसी प्रकार, बिना शर्त शिक्षकों को राज्यकर्मी का दर्जा दिए जाने की मांग पर भी भाकपा(माले) और वाम दल सरकार को घेरते रहने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं. इस आंदोलन का नेतृत्व भाकपा(माले) के युवा विधायक संदीप सौरभ ही कर रहे हैं. विगत तीन महीनों से लड़ाई जारी है. अंततः सरकार ने इसपर वार्ता शुरू कर दी है और ऐसी उम्मीद की जा रही है कि शिक्षकों के पक्ष में सरकार द्वारा उचित फैसला लिया जाएगा. सरकार का समर्थन करते हुए शिक्षक आंदोलन का नेतृत्व करना जटिल था, लेकिन अंततः डेडलाॅक डाॅयलाग में बदला. सरकार द्वारा वार्ता की घोषणा के बाद शिक्षक संगठनों और शिक्षकों का भाकपा(माले) के ऊपर भरोसा बढ़ा है. यह इससे भी साबित होता है कि भाजपा द्वारा 13 जुलाई को आहुत विधानसभा मार्च में शिक्षकों की भागीदारी न के बराबर रही. लाख प्रयास और भाकपा(माले) पर लगातार हमले के बावजूद शिक्षकों का विश्वास भाजपा नहीं जीत सकी.

आशाकर्मियों की ऐतिहासिक हड़ताल

विगत 12 जुलाई से दस हजार न्यूनतम मासिक मानदेय और रिटायरमेंट पैकेज सहित 9 सूत्री मांगों को लेकर आशा संयुक्त संघर्ष मंच के बैनर से आशाकर्मियों-फैसिलिटेटरों की हड़ताल जारी है. इस हड़ताल का भी नेतृत्व भाकपा(माले) और वाम दल ही कर रहे हैं. विगत 3 अगस्त को राजधानी पटना में हजारों आशा कार्यकर्ताओं ने दस्तक दी. आशा कार्यकर्ताओं की लोकप्रिय नेता शशि यादव का कहना है कि सरकार अड़ियल रवैया अपना रही है. हमने भाजपा के खिलाफ महागठबंधन सरकार को समर्थन दिया है, इसका मतलब यह नहीं कि जनांदोलनों की आवाज हम उठाना बंद कर देंगे. 3 अगस्त तक सरकार से दो राउंड की वार्ता असफल हो चुकी है. आशाकर्मियों का कहना है कि महागठबंधन सरकार को तो स्कीम वर्करों व कामकाजी तबके के प्रति और भी संवेदनशील होना चाहिए क्योंकि ये सामाजिक न्याय की बात करते हैं. लेकिन आशाकर्मियों को न्यूनतम मानदेय भी नहीं मिलता जबकि वह महागठबंधन के घोषणापत्र में शामिल था. तेजस्वी यादव ने भी पारितोषिक की जगह मासिक मानदेय व सम्मानजनक राशि देने की घोषणा की थी. कई राज्यों में सम्मानजनक मासिक मानदेय के साथ एक लाख का रिटायरमेंट पैकेज और पेंशन मिलता है. केरल, कर्नाटक, आंध्र, मध्यप्रदेश, ओडिशा, राजस्थान आदि राज्यों में ये सुविधाएं मिल रही हैं, तो बिहार सरकार क्यों नहीं दे सकती?

नया वास कानून की लगातार उठ रही मांग

उसी प्रकार संपूर्ण सर्वेक्षण के आधार पर नया आवास कानून, सभी भूमिहीनों को 5 डिसमिल भूमि और पक्का मकान की गारंटीऋ मनरेगा में 200 दिन काम, 600 रुपये दैनिक मज़दूरी और समय पर भुगतान; सभी बुजुर्गों, विकलांगों और विधवा नागरिकों को 3000 रुपये मासिक पेंशन; सभी दलितों, आदिवासियों, मजदूरों और गरीबों को 200 यूनिट मुफ्त बिजली देने, शिक्षा-स्वास्थ्य और बिजली की गारंटी तथा दलितों, आदिवासियों और अकलियतों के सम्मान और अधिकार की गारंटी के सवाल पर खेग्रामस भी पूरे राज्य में आंदोलन चला रहा है. संगठन के महासचिव धीरेन्द्र झा का कहना है कि महागठबंधन सरकार को लोकप्रिय आंदोलनों की मांगें पूरी ही करनी चाहिए. बिहार की जनता की यही उम्मीदें है. और यदि ऐसा होता है तो बिहार में भाजपा को एक ईंच भी जमीन नहीं मिलने वाली है.

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बिजली की गहराती समस्या और बारसोई ‘गोलीकांड’ 

यह सच है कि केंद्र की मोदी सरकार बिहार को सबसे महंगी दर पर बिजली उपलब्ध करवाती है. इस कारण बिजली का संकट लगातार बना रहता है. पिछले दिनों में कटिहार जिले में बिजली के सवाल पर चल रहे आंदोलन पर पुलिस की गोली से दो लोगों की हत्या की दुखद घटना भी घटी. इस पूरे मामले में जिला प्रशासन की संवेदनहीनता ही उजागर हुई है. प्रशासन को पटरी पर लाना नीतीश कुमार के लिए एक गंभीर विषय होना चाहिए.

बारसोई ‘गोलीकांड’ में जिला प्रशासन ने तीन दिनों के भीतर कई बार अपने बयान बदले. पहले कहा गया कि पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई थी. दो दिन बाद बारसोई अनुमंडल कार्यालय परिसर का सीसीटीवी पफ़ुटेज जारी करते हुए पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी ने दावा किया कि 26 जुलाई को बारसोई में घटित घटना एक सुनियोजित साजिश थी और भीड़ से ही किसी ने गोली चलाई.

28 जुलाई को ही भाकपा(माले) की एक उच्चस्तरीय जांच टीम बारसोई पहुंची. विदित हो कि बारसोई बलरामपुर विधानसभा के अंतर्गत आता है, जहां से लंबे समय से भाकपा(माले) के विधायक दल के नेता का. महबूब आलम विधायक रहे हैं. विगत 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक मतों से जीत का रिकाॅर्ड स्थापित करने वाले महबूब आलम अपने इलाके में काफी लोकप्रिय हैं. भाकपा(माले) की जांच टीम ने प्रत्यक्षदर्शियों व मृतकों के परिजनों से तथ्य प्राप्त किए, वे प्रशासन के दावे को पूरी तरह झूठ साबित करते हैं. पहली नजर में ही गोलीकांड और दो हत्याओं के लिए प्रशासन जिम्मेवार नजर आता है. 26 जुलाई की घटना में खुर्शीद व सोनू साह की मौत हो गई थी जबकि नेयाज नाम का एक युवक बेहद जख्मी हो गया था.

कार्यक्रम की पूर्व सूचना होने के बावजूद भी प्रशासन ने उचित व्यवस्था नहीं की और उसे हलके ढंग से लिया. भाकपा(माले) विधायक दल नेता महबूब आलम ने भी एसडीओ व डीएसपी को टेलीफोनिक सूचना देकर सचेत किया था कि आम लोगों में काफी आक्रोश है इसलिए प्रशासन इसे ठीक से डील करे. बावजूद, प्रशासन ने अपनी ओर से किसी भी मजिस्ट्रेट की नियुक्ति नहीं की और मामले को काफी हल्के ढंग से लिया. यदि प्रशासन का कोई आदमी धरनास्थल पर आकर आंदोलकारियों का मेमोरेंडम ले लिया होता, तो यह घटना ही नहीं घटती. प्रशासन ने बिना किसी चेतावनी, आंसू गैस अथवा हवाई फायरिंग के सीधे हत्या के मकसद से गोली चलाई.

भाकपा(माले) विधाायक दल के नेता महबूब आलम ने मुख्यमंत्री से मिलकर इस मामले की उच्चस्तरीय न्यायिक जांच की मांग उठाई है.