वर्ष - 32
अंक - 33
12-08-2023

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मोदी उपनाम को कलंकित करने के मुकदमे में राहुल गांधी पर लगाए गए अभियोग पर स्थगन दिया जाना भारत के खुलते राजनीतिक परिदृश्य में एक मोड़-बिंदु है. मोदी सरकार ने संसदीय व अन्य संवैधानिक निकायों के जरिये संविधान पर निरंतर हमला करने और लोकतंत्र को विनष्ट करने और अपने हर कदम के लिए न्यायिक स्वीकृति झटक लेने की कला में महारत हासिल कर ली है. तथाकथित मोदी उपनाम मुकदमे की पटकथा इसी रास्ते पर आगे बढ़ती हुई सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गई. 2019 की चुनावी रैली के दौरान कर्नाटक में राहुल गांधी द्वारा दिए गए एक भाषण पर गुजरात में अवमानना मुकदमा दायर किया गया, और 23 मार्च 2023 को उन्हें अधिकतम संभव सजा सुनाई गई जिसे गुजरात में हर स्तर की न्यायिक प्रणाली ने बहाल रखा. 4 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने आखिरकार उसपर स्थगन लगाया.

सर्वोच्च न्यायालय ने जो सबसे बुनियादी सवाल पूछा वह सवाल गुजरात हाई कोर्ट और निचली अदालतों द्वारा पूछा जाना चाहिए था. आपराधिक अवमानना मुकदमा में दो साल की सजा अधिकतम संभव सजा है. यह अधिकतम सजा देने का औचित्य ही क्या था? यह सवाल और ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए भी हो जाता है, क्योंकि अगर यह सजा एक दिन भी कमतर होती तो इससे राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म नहीं की जा सकती थी. सजा के इस बुनियादी पहलू पर गौर करने की बजाय गुजरात की अदालतों ने, और खासकर हाई कोर्ट ने, कानूनी तौर पर असमर्थनीय बिंदु उठाए और राहुल गांधी को ऐसा अपराध करने का आदी बताया और अवमानना की इस तथाकथित कार्रवाई को नैतिक नीचता की संज्ञा दी! कुछ दिन पहले ही कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड की जमानत नामंजूर करने वाले गुजरात हाई कोर्ट के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज किया था. सर्वोच्च न्यायालय ने पाया था कि गुजरात हाई कोर्ट का फैसला अंतरविरोधों से भरा हुआ था. हाल ही में गुजरात हाई कोर्ट द्वारा दिए गए संदेहास्पद फैसलों का हवाला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अवमानना मामले में राहुल गांधी की सजा पर स्थगन लगाते हुए कहा कि गुजरात हाई कोर्ट के हालिया फैसलों में ‘मजेदार बातें’ मिलती हैं.

अवमानना कानून अति-धनाढ्यों और शक्ति-संपन्न लोगों के हाथों का एक आसान औजार बन गया है जिसके जरिये वे अपनी सत्ता और विशेषाधिकार की रक्षा कर सकें और आलोचकों व विरोधियों को निशाना बना सकें. मोदी के जमाने में यह कानून सरकार के लिए अपने विरोधियों को निशाना बनाने का राजनीतिक हथियार बन गया है. मोदी उपनाम अवमानना मामले में मुकदमा तो काफी पहले 2019 में ही दायर किया गया था. एक समय तो वादी ने यह कहते हुए कि उसके पास पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं, खुद न्यायिक प्रक्रिया पर स्थगन की अपील की थी और स्थगन हासिल भी कर लिया था! अडानी ग्रुप द्वारा किए जा रहे काॅरपोरेट घोटाले के बारे में हिंडनबर्ग खुलासे और मोदी-अडानी रिश्ते के बारे में संसद में राहुल गांधी द्वारा सवाल करने के बाद ही यह मुकदमा फिर से खोला गया और सूरत के सीजेएम कोर्ट ने आनन-फानन इसका निपटारा कर दिया. लोकसभा सचिवालय ने भी अभूतपूर्व फुर्ती दिखाई और एक दिन से भी कम समय में राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म कर दी तथा एक महीने के अंदर ही उनके आवंटित आधिकारिक आवास से उनको बेदखल कर दिया. राहुल गांधी की सजा पर सर्वोच्च न्यायालय के स्थगन के महत्व को मोदी शासन अब चाहे जितना भी कम करके क्यों न बताये, आम लोग इसे सरकार की भद्दी और कुटिल राजनीतिक मंशा पर लगा धक्का ही समझ रहे हैं.

बहरहाल, वायनाड से लोकसभा सदस्य के बतौर राहुल गांधी की पुनर्बहाली से लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली के खिलाफ भाजपा का निरंतर प्रहार तथा उसके द्वारा संस्थाओं व कानून के संवैधानिक राज के सिद्धांतों का दुरुपयोग कम नहीं होने जा रहा है. जहां चार महीनों से भी ज्यादा समय तक ‘निर्योग्य’ रहने के बाद राहुल गांधी की सदस्यता बहाल की गई, वहीं उत्तर प्रदेश के इटावा से भाजपा के आरोपी सांसद को लोकसभा सचिवालय ने उतना संकटकालीन समय दे दिया जिससे कि वे अपने अभियोग पर स्थगन हासिल कर लें और किसी रुकावट के बिना सांसद बने रह सकें. और भी विडंबना तो यह है कि जिस दिन राहुल गांधी वापस संसद पहुंचे, उसी दिन मोदी सरकार ने राज्य सभा में एक काला बिल पारित करवा कर निर्वाचित दिल्ली सरकार की शक्तियों को छीन लिया. राज्य सभा में बहुमत न रहने के बावजूद मोदी सरकार ने बीजद, वाइएसआरसीपी और टीडीपी जैसी आंचलिक पार्टियों को बहला-फुसलाकर और डरा-धमकाकर उनसे अपने इस अ-लोकतांत्रिक व गैर-संवैधानिक बिल के लिए समर्थन प्राप्त कर आवश्यक संख्या हासिल कर ली. ‘आप’ ने जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक अधिकारों और यहां तक कि उसके राज्य के दर्जे को छीन लेने वाले मोदी सरकार के कदम का आनन-फानन समर्थन कर दिया था, लेकिन अब उसे यह कठोर हकीकत समझ में आ रही है कि कश्मीर पर हमला दरअसल दिल्ली पर इस हमले की पूर्वपीठिका था. हमें हैरत है कि मोदी शासन का समर्थन करने वाली आंचलिक पार्टिया कब यह समझेंगी कि वे संवैधानिक लोकतंत्र और इसके संघीय ढांचे में निहित देश के साझा हितों का कितना नुकसान कर रही हैं. हमें इसे अमंगलकारी चेतावनी के बतौर ही देखना चाहिए कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश और वर्तमान में राज्य सभा सदस्य रंजन गोगोई ने इस बिल का समर्थन करते हुए यहां तक कह दिया कि संविधान का ‘बुनियादी ढांचा’ ही विवादास्पद है !

लोकतंत्र, इसकी संवैधानिक बुनियाद और संघीय ढांचे पर हमला सिर्फ राज्य के द्वारा अथवा सांस्थानिक दुरुपयोग या कानूनी व रानीतिक तिकड़मबाजी के जरिये ही नहीं किया जा रहा है. संपूर्ण भारत में हम हर सामाजिक क्षेत्र में निरंतर संगठित हमले होते देख सकते हैं. मणिपुर तीन महीने से भी ज्यादा समय से जल रहा है और प्रधान मंत्री संसद में भी इसके बारे में कुछ बोलने से इन्कार कर रहे हैं. और, फरवरी 2020 में दिल्ली में तथा इसके पूर्व 2013 में मुजफ्फरनगर में मुस्लिम-विरोधी हिंसा की पुनरावृत्ति करते हुए भाजपा अब हरियाणा के मेवात क्षेत्रा को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और मुस्लिम समुदाय पर प्रणालीगत हमले की एक दूसरी प्रशेगस्थली बना दे रही है. हिंदुत्ववादी भीड़ द्वारा सुनियोजित व संगठित ‘दंगा कार्रवाई’ इन दिनों राज्य द्वारा ‘बुलडोजिंग’ के रूप में संचालित की जा रही है, और पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालयों द्वारा रोके जाने के आदेश निर्गत करने के पहले ही खट्टर सरकार ने ‘अतिक्रमण हटाने’ के नाम पर नुंह में दर्जनों मुस्लिम घरों व दुकानों को ध्वस्त करवा दिया था. लगातार बढ़ती असुरक्षा के चलते बिहार और पश्चिम बंगाल के अनेक मुस्लिम प्रवासियों को हरियाणा छोड़कर अपने गृह राज्यों की ओर लौटने को मजबूर होना पड़ा है.

नुंह हिंसा, गुरुग्राम मस्जिद पर हमला और नौजवान मुल्ला मौलाना शाद की नृशंस हत्या तथा बुलडोजर के जरिये विध्वंस व उत्पीड़न अभियान – ये सब अगले दौर के महत्वपूर्ण चुनावों के ठीक पहले आतंक का राज तेज करने व सांप्रदायिक विभाजन को तीखा बनाने की ओर लक्षित हैं. भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने मध्य प्रदेश में अभियान के दौरान अपने एक भाषण में इसे साफ तौर पर जाहिर कर दिया है. विजयवर्गीय के अनुसार, भाजपा उनलोगों की जान लेने में तनिक भी नहीं हिचकेगी जो भारत माता के विरुद्ध एक शब्द भी बोलेंगे – यह तो संघ ब्रिगेड द्वारा राष्ट्रविरोधी करार दिए गए किसी भी व्यक्ति के लिए स्पष्ट हत्यारी धमकी ही है. नौ साल तक शासन में रहने के बाद संघ-भाजपा प्रतिष्ठान अब खतरनाक हद की उद्दंडता और आक्रामकता का इजहार कर रहा है जो सत्ता छिन जाने के भय से तथा लोकतंत्र व जनता के प्रति जन्मजात घृणाभाव के चलते और बढ़ती जा रही है. राज्यसभा में दिल्ली बिल के पारित होने से मोदी निजाम की सत्ता-उद्दंडता और बढ़ ही जाएगी, और एकजुट विपक्ष को दमितों व उत्पीड़ितों के साथ खड़े होकर तथा जनता को गोलबंद करके इस निजाम को जमीन पर पटखनी देनी होगी ताकि आने वाले चुनावों में उद्दंड संघ-भाजपा ब्रिगेड को मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके.