वर्ष - 32
अंक - 36
02-09-2023

- मैत्रोयी

11 अगस्त 2023 को अमित शाह ने पूरी आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव के लिए तीन विधेयक पेश करते यह दावा किया कि यह गुलामी के सभी निशानियों का अंत कर देगा और इन कानूनों की क़ुव्वत से सभी भारतीयों के संविधान सम्मत अधिकारों की हिफाजत होगी, साथ ही इसका उद्देश्य सजा की बजाय इंसाफ देना है.

भारतीय न्याय संहिता विधेयक 2023 (बीएनएस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक 2023 (बीएनएसएस), और भारतीय साक्ष्य विधेयक 2023 को क्रमशः भारतीय दंड संहिता-1860, आपराधिक प्रक्रिया संहिता-1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 की जगह लाया गया है.

हालांकि, आपराधिक न्यायशास्त्र को नियंत्रित करने वाले मौजूदा कानूनों की औपनिवेशिक जडें होने के बाबजूद उनमें आजादी के बाद काफी संशोधन किया गया है. यह एक हकीकत है कि जुल्मो-सितम की संरचनाओं को बनाए रखने और किसी भी प्रकार की असहमति को दबाने के लिए  शासक वर्गों द्वारा हमेशा आपराधिक कानूनों को अनेक तरीकों से हथियार बनाया जाता रहा है. इन कानूनों में अवश्य ही सुधार की जरूरत है ताकि उन्हें नागरिक स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों के बुनियादी मान्यताओं के अनुरूप ढाला जा सके, जिसमें अन्य बातों के अलावा प्री-ट्रायल हिरासत अवधि कम करना, जमानत का अधिकार सुनिश्चित करना आदि शामिल है. जबकि प्रस्तावित विधेयक इनमें से किसी भी चिंता का समाधान नही करता. बल्कि, यह बड़े पैमाने पर मौजूदा कानून के प्रावधानों को बरकरार रखता है, और प्रस्तावित बदलाव संवैधानिक अधिकारों को और खोखला कर एक पुलिस राज्य के पैदाइश की  बंद-ओ-बस्त करता है.

यह खोखलापन इन कानूनों के लिए हिंदी नामों के शुरुआती प्रयोग से ही साफ है – जो पूरे देश में तेजी से हिंदी को थोपने की सचेत कोशिश है. जनता तक इंसाफ सुनिश्चित करने और उनके संवैधानिक अधिकारों की हिफाजत करने के बजाय यह विधेयक राज्य के अधिकार को और शक्तिशाली बनाना चाहता है. राज्य की शक्ति में यह इजाफा अपराधों की अस्प्ष्ट परिभाषा के साथ जुड़ा है, जिसके न सिर्फ दुरुपयोग की संभावना है बल्कि यह नागरिकों के अधिकारों की हिफाजत के घोषित इरादे के उलट भी है.

किसी भी पूर्व विधायी प्रक्रिया का अभाव

लोकतांत्रिक और परामर्शी कायदे के प्रति अपनी पुरानी नजरअंदाजी दिखाते भाजपा सरकार द्वारा इन विधेयकों को बिना किसी पूर्व विचार-विमर्श के पेश किया गया है. इस संदर्भ में अमित शाह का मई 2020 में कोविड महामारी के उफान के समय हुई परामर्शी प्रक्रिया की ओर इशारा करने का दावा खोखला लगता है. यह प्रक्रिया ऐसे समय में हुई जब देश महामारी के गहरे असर से जूझ रहा था. यह ऐसे किसी तरीके में सबकी वास्तविक सहभागिता और इसके कारगर होने पर सवाल उठाता है. इसके लिए गठित समिति की संरचना, भागीदारी और परामर्श के तरीकों और यहां तक कि अपनाई गई पद्धति के बारे में पारदर्शिता के अभाव से जुड़े मुद्दे भी काफी हैं.

भले ही शाह ने यह दावा किया हो कि 18 राज्यों, 6 केंद्र शासित प्रदेशों, सुप्रीम कोर्ट और 16 उच्च न्यायालयों ने इन नए कानूनों के संबंध में अपने सुझाव दिए हैं, लेकिन उनके पूरे विवरण की अनुपस्थिति, अन्य राज्यों और उच्च न्यायालयों की गैर-भागीदारी, और अपनायी गयी पूरी प्रक्रिया इसकी वैधता और परामर्शी प्रक्रिया को अमल में लाने के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा करती है. सच्चाई तो यह है कि समिति की रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों को कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया है.

अब हम नए बिलों द्वारा लाए कुछ खास बदलावों और इन बदलावों को लागू करने के खतरों पर एक नजर डालते हैं.

देशद्रोह: अब एक और अधिक खतरनाक नाम से

मौजूदा हुकूमत की कार्रवाइयों के पीछे जो पाखंड छिपा है, वह देशद्रोह के प्रति उनके रवैये से बिल्कुल साफ दिखता है. शाह द्वारा बड़े-बड़े दावे किए गए कि राजद्रोह को पूरी तरह से निरस्त किया जा रहा है और भारत एक लोकतंत्र है और सभी को बोलने का अधिकार है. पर हकीकत में वे एक ऐसा प्रावधान लाये हैं जो हू-ब-हू राजद्रोह की तरह है, और इसे बोलने के अधिकार को प्रतिबंधित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है तथा सजा भी ज्यादा है. इस विधेयक की धारा-150 भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाली कार्रवाइयों को सामने लाती है, जो बोले गए या लिखित शब्दों, किसी भी तरह की छवियों और इलेक्ट्रॉनिक संचार से अलगाव या सशस्त्र विद्रोह भड़काने  या विध्वंसक या अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित कर भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालता हो या ऐसी गतिविधियों के लिए धन मुहैया कराता हो तो इसके लिए सजा का प्रावधान करता है. जबकि सच्चाई यह है कि राजद्रोह के लिए केवल आजीवन कारावास या 3 साल तक की सजा के प्रावधान को बढ़ाकर भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के तहत आजीवन कारावास या 7 साल तक  कारावास अवधि का विस्तार कर दिया गया है.

पहली बार पेश नए किस्म के व्यापक अपराध

बीएनएस विधेयक संगठित अपराध और आतंकवादी कार्रवाइयों की नई किस्म पेश करता है. इन प्रावधानों की खासियत व्यापक और गोलमोल परिभाषाएं हैं, जो संभावित दुरुपयोग के बारे में चिंताएं पैदा करती हैं. बीएनएस की धारा 109 में संगठित अपराध को व्यक्तियों या समूहों द्वारा हिंसा, धमकी या अन्य गैरकानूनी साधनों का उपयोग कर वित्तीय या भौतिक लाभ पाने के लिए समन्वित तरीके से की जाने वाली अवैध गतिविधियों के रूप में परिभाषित किया गया है. इसमें अपराधों में सहायता करना, साजिश रचना, संगठित करना, सुविधा मुहैया कराना या संगठित अपराध की तैयारी में शामिल होना शामिल है – यह हैरतअंगेज रूप से अस्पष्ट है और दुरुपयोग के काबिल है. यह संगठित अपराध सिंडिकेट का सदस्य होने को भी अपराध मानता है, जिसे विभिन्न आपराधिक गतिविधियों में शामिल एक समूह के रूप में परिभाषित किया गया है और संभावित दुरुपयोग के लिए इसमें काफी जगह है.

एक अन्य चिंताजनक पहलू ‘छोटे संगठित अपराध’ की नई श्रेणी है, जिसे नागरिकों के बीच सामान्य असुरक्षा पैदा करने वाले अपराधों के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें संगठित आपराधिक समूहों या गिरोहों द्वारा की गई गतिविधियों की एक कतार शामिल है. एक बार फिर इस परिभाषा की व्यापकता का दायरा इसके संभावित दुरुपयोग पर चिंता पैदा करती है.

यह विधेयक यूएपीए से भी व्यापक ‘आतंकवादी कार्रवाइयों’ की परिभाषा पेश करता है जिसमें खास बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचाना या नष्ट करना, महत्वपूर्ण सिस्टम को बाधित कर भारत की एकता, अखंडता और सुरक्षा को खतरे में डालना भी शामिल है, और फिर इसमें सरकार या उसके संगठनों को डराना, संभावित रूप से सार्वजनिक अधिकारियों की मौत या चोट पहुंचाने का अंदेशा, सरकारी कार्यों को बाधित करना, या देश की संरचनाओं को डावांडोल करने को भी शामिल किया गया है.

इन नए अपराधों की सूची की समीक्षा करते हुए केजी कन्नाबीरन के इन शब्दों को याद करना महत्वपूर्ण है कि कानून अपराध को परिभाषित करता है, और राज्य अपराधी होने का फैसला देता है. अपराध की अस्पष्ट और व्यापक परिभाषा से कानून के मनमाने इस्तेमाल की पूरी गुंजाईश दर्ज है.

महिलाओं के खिलाफ अपराधों और महिलाओं की स्वायत्तता की अनदेखी पर दिखावा

विधेयक को पेश करते शाह ने धारा की संख्याओं के पुनर्गठन पर जोर देते कहा कि पहले हत्या और महिलाओं के खिलाफ अपराधों को देशद्रोह और डकैती जैसे अपराधों के बाद रखा गया था, जिसे संशोधित कर शुरुआती अध्याय में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों को प्राथमिकता दी गई है. नए कानून के भीतर प्रावधानों के अनुक्रम पर यह जोर और भी अधिक महत्वपूर्ण पहलू – कानून की अंतर्वस्तु – को ढक देता है. महिलाओं के खिलाफ अपराधों के बारे में कानून में पेश किए गए संशोधनों में सतही नजरिया कायम है. यौन हिंसा से सम्बंधित मामलों में नारीवादी आंदोलन की एक मुख्य मांग वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को समाप्त करना और विवाह की सीमारेखा के अंदर भी बलात्कार को अपराध घोषित करना रहा है. लेकिन इस बदलाव के लिए कोई प्रावधान नही लाया गया है. हालांकि इस अपवाद के लिए आयु सीमा को पास्को अधिनियम के मानक के अनुरूप करते हुए 15 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया है, लेकिन विवाह संस्था के भीतर महिलाओं की स्वायत्तता से जुड़ी मूलभूत चिंता अभी भी बरकरार है. कानून में 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में मृत्युदंड का भी प्रावधान है. महिला आंदोलन ने लगातार मृत्युदंड के खिलाफ लड़ाई लड़ी है और इस बात पर जोर दिया है कि यह रूकावट के बतौर नहीं काम करता है.

पुलिस राज्य की बुनियाद

एडीएम जबलपुर बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि हमें यह याद रखना चाहिए कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का इतिहास काफी हद तक कायदे-कानूनों की प्रक्रिया पर जोर देने का इतिहास रहा है. इस प्रक्रिया पर हमले को हम  व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमले के बतौर देखते हैं.

पुलिस हिरासत की अवधि में बढ़ोतरी

बीएनएनएस विधेयक अपराध की प्रकृति के आधार पर सीआरपीसी द्वारा अनुमत 15 दिनों की पुलिस हिरासत की अवधि को बढ़ाकर 60 या 90 दिन कर देता है जो कि चौकाने वाली बात है. 15 दिनों की पुलिस हिरासत की अनुमति ही आरोपी व्यक्त्यिों के लिए गंभीर जोखिम भरी रही है. पुलिस हिरासत को 60 या 90 दिनों तक बढ़ाने के परिणाम बेहद गंभीर हैं और इससे आरोपियों के जीवन और निष्पक्ष सुनवाई के उनके अधिकार पर गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा. आज की ज़रूरत यह है कि आरोपित व्यक्तियों के लिए ट्राॅयल के पहले हिरासत की अवधि को कम किया जाए. यह समझना महत्वपूर्ण है कि भारत में ट्रायल-पूर्व हिरासत की अवधि पहले से ही अधिक है. बहरहाल, इस  परेशानी को दूर करने के बजाय प्रस्तावित विधेयक ने वास्तव में मजिस्ट्रेट को पुलिस हिरासत की अवधि अकल्पनीय रूप से 60 या 90 दिनों तक बढ़ाने की शक्तियां प्रदान की हैं.

प्रस्तावित बीएनएस विधेयक की धारा 187(2) में प्रावधान है कि मजिस्ट्रेट अभियुक्त को ऐसी हवालात में हिरासत में रखने की अनुमति दे सकता है, जिसे वह उचित समझे. यह  जांच एजेंसी को जांच के पहले 40/60 दिनों में ‘किश्तों’ में 15 दिनों की पुलिस हिरासत की मांग करने की अनुमति देता है. इसका मतलब यह है कि गिरफ्तारी के बाद पहले 15 दिन की अवधि के बाद अलग-अलग समय में पुलिस हिरासत की मांग की जा सकती है. यह प्रावधान स्पष्ट करता है कि पुलिस हिरासत 15 दिनों से अधिक नहीं हो सकती, हालांकि, इसे गिरफ्तारी के पहले 15 दिनों के भीतर एक बार में मांगने की जरूरत नहीं है, जैसा कि अब आम तौर पर समझा जाता है, लेकिन जैसा भी मामला हो, 40 या 60 दिनों में अलग-अलग समय में मांगा जा सकता है. धारा-187 की उपधारा-3 में प्रावधान है कि मजिस्ट्रेट आरोपी व्यक्ति को पंद्रह दिनों की अवधि से अधिक हिरासत में रखने की अनुमति दे सकता है, यदि वह संतुष्ट है कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं. इस उपधारा के तहत निम्न परिस्थितियों में कुल अवधि से अधिक के लिए हिरासत में रखने की अनुमति नही दी जा सकती - (1) जब जांच मौत, आजीवन कारावास या कम से कम दस साल की अवधि की कैद जैसे दंडनीय अपराधों से संबंधित हो तो 90 दिन से अधिक नही हो सकती, (2) जहां जांच किसी अन्य अपराध से संबंधित हो तो 60 दिनों से ज्यादा हिरासत की अवधि नही हो सकती. सीआरपीसी में एक समान प्रावधान है, हालांकि इस प्रावधान में 15 दिनों की अवधि से अधिक की कस्टडी ‘पुलिस  हिरासत’ के अलावा अन्यथा होगी, जो प्रस्तावित संहिता में अनुपस्थित है. इस प्रकार धारा-187(2) में अस्पष्टताएं मौजूद है जो खास तरीके से परिभाषित की जा सकती है और धारा 187(3) मजिस्ट्रेट को 15 दिनों की अवधि से अधिक की हिरासत को अधिकृत करने की अनुमति देती है, और ऐसी हिरासत न्यायिक हिरासत या पुलिस हिरासत हो सकती है. पुलिस हिरासत की अवधि को 60 या 90 दिनों की अनुमति देना एक बड़ा बदलाव है. यह अपराध साबित होने तक निर्दाेष मानने की मान्यता पर हमला है और आरोपियों की आपराधिक प्रोफाइलिंग करता है.

बीएनएनएस विधेयक प्रत्येक पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय में गिरफ्तार आरोपी के नाम, पते और अपराध की प्रकृति को फिजिकल और डिजिटल रूप में प्रदर्शित करने को अनिवार्य करता है जो एक पुलिस स्टेट के अवतरित होने की खासियत है. यह प्रावधान सीधे तौर पर निजता और मानवीय गरिमा के अधिकार का अतिक्रमण करता है, जिससे संभावित रूप से औपचारिक दोषसिद्धि तक पहुंचने से पहले ही व्यक्तियों की आपराधिक प्रोफाइलिंग और उनको लक्षित करने को प्रश्रय देता है.

यह विधेयक मुकदमे से पहले ही अपराधी होने की मान्यता को जारी रखते हुए अपराध से अर्जित आय समझी जाने वाली संपत्ति की कुर्की का प्रावधान करता है, जिसके बाद साक्ष्य शुरू होने से पहले या बाद में, आवश्यकता के अनुसार बिना ट्रायल के भी पीड़ितों को वितरित किया जा सकता है. यह प्रावधान ‘दोषी साबित होने तक निर्दाेष’ के मूल न्यायिक सिद्धांत का खंडन करता है.

सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक रूप से हथकड़ी पहनाने को मानवीय गरिमा के अधिकार का उल्लंघन कहा है, इसके बाबजूद बीएनएस विधेयक आरोपी व्यक्तियों के अधिकारों को कमजोर करने के लिए एक और कदम उठाता है. यह गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी के उपयोग की अनुमति देता है यदि व्यक्ति आदतन अपराधी होने, हिरासत से भागने वाले, या यदि वह संगठित अपराध या आतंकवादी कृत्यों जैसे कुछ अपराधों का आरोपी हैं, तो वह इस मानदंड में फिट बैठता है. यह प्रावधान आरोपियों के अपनी गरिमा बनाए रखने के मूल अधिकार को और भी कमजोर कर देता है.

स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार पर हमला

शाह ने इन कानूनों में अत्याधुनिक तकनीकों को शामिल किए जाने के बारे में भी बताया है. अलबत्ता, गौर करने पर हम पाते हैं कि कि यह अभियुक्तों के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकारों की कीमत पर है.  वर्तमान में, अदालत में अभियुक्त की सिर्फ भौतिक उपस्थिति को वीडियो काॅन्फ्रेसिंग द्वारा दिखाया जा सकता है, मगर प्रस्तावित विधेयक इसका विस्तार वीडियो काॅन्फ्रेसिंग के जरिये जिरह सहित पूरी ट्राॅयल प्रक्रिया को शामिल करने के लिए करता है. यह आरोपी के उचित बचाव करने के अधिकार का सीधा उल्लंघन है, क्योंकि वर्चुअल दुनिया में खुद का बचाव करने की क्षमता में काफी कमी आएगी.

सुनवाई के अधिकार से प्रस्तुत छूट की अवधारणा ने निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार पर हमले को और भी आगे बढ़ाया है. बीएनएसएस का प्रस्ताव है कि जिन मामलों में व्यक्ति घोषित अपराधी है और मुकदमे से बचने के लिए भाग गया है, वहां निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार खत्म कर दिया गया माना जाएगा. इसके परिणामस्वरूप न्यायालय को मुकदमे को आगे बढ़ाने का अधिकार प्राप्त हो गया है जैसे कि व्यक्ति शारीरिक रूप से उपस्थित था. यह सुनवाई के अधिकार के मूल सिद्धांतों को असरदार तरीके से कमजोर करता है.

हथियार ले जाने पर रोक लगाने की शक्तियों में कमी

शातिराना तरीके से सार्वजनिक शांति को बनाये रखने के लिए जुलूस, सामूहिक अभ्यास या सामूहिक प्रशिक्षण के दौरान हथियार ले जाने पर रोक लगाने के लिए सीआरपीसी की धारा 144-ए के तहत पहले से निहित जिला मजिस्ट्रेट के अधिकार को रद्द कर दिया गया है. हालिया वर्षों में देश हिंदुत्ववादी चरमपंथी संगठनों द्वारा हथियारों के प्रदर्शन और इसके सामूहिक अभ्यास में बढ़ोतरी का गवाह रहा है, जिस पर अंकुश रखने के लिए जिला मजिस्ट्रेट इस अधिकार का प्रयोग करते थे. इसे अब निरस्त कर दिया गया है. इस बदलाव के पीछे छिपा मकसद बिलकुल साफ है – हथियारों से लैंस ऐसे जुलूस-प्रदर्शनों को और बढ़ावा देना.

आपराधिक कानून में सुधार की मांग पर लड़ने वाले नागरिक अधिकार कार्यकर्ता इसके विभिन्न पहलुओं में सुधार की मांग करते रहे हैं. इनकी प्रमुख मांगों में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), राष्ट्रीय जांच एजेंसी अधिनियम और इनकी तरह अन्य असाधारण रूप से सख्त और जालिमाना कानूनों को निरस्त करना शामिल रहा है. अन्य मांगों में पुलिस और न्यायिक हिरासत की अवधि में कमी और जमानत के अधिकार सहित जेलों में भीड़भाड़ पर चिंताओं को नजरअंदाज करता है.

बहरहाल, ये प्रस्तावित विधेयक इनमें से किसी भी चिंता का समाधान नहीं करते हैं, कम से कम इंसाफ या संवैधानिक अधिकारों की धारणाओं का तो बिलकुल नही, जैसा कि दावा किया गया है. इसके बजाय, ये कानून को और अधिक सख्त और जालिमाना बना कर एक पुलिस राज्य की बुनियाद डालते हैं और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के खात्मे को मंजूर करते हैं.