वर्ष - 29
अंक - 6
01-02-2020

– पुरुषोत्तम शमा

पंजाब के मुजारा आन्दोलन के बारे में बाकी देश या तो जानता ही नहीं है या बहुत ही कम जानता है. मानसा जिले के किशनगढ़ गांव में इस आन्दोलन की यादों को जिंदा रखने वाला एक स्मारक है. तेलंगाना आन्दोलन के समय उसी तरह का आन्दोलन पंजाब की धरती पर मुजारों (गरीब व भूमिहीन किसान) की संगठित ताकत के बल पर चल रहा था. पंजाब का मुजारा आन्दोलन पटियाला राज के अन्दर अंग्रेजों से देश की आजादी और बड़े जागीरदारों के खिलाफ उन गरीब व भूमिहीन किसानों का संगठित आन्दोलन था जो उनकी जमीनों पर काश्त करते थे. मानसा जिले के किशनगढ़ में आज भी मुजारा आन्दोलन और उसके शहीदों की याद में एक भव्य स्मारक है. उस स्मारक की ऊंची लाल लाट के ऊपर मुजारों के प्रिय लाल झंडे को बनाया गया है, जिस पर कम्युनिस्टों का निशान हंसिया हथौड़ा बना है. किशनगढ़ मुजारा आन्दोलन का सबसे बड़ा गढ़ था. इस पर पटियाला राज की सेना ने चारों और से घेर कर तोपों से हमला किया था. राजा की सेना का मुकाबला करने को किसानों के सशस्त्र जत्थे डटे थे. इस लड़ाई में इस गांव के किसान योद्धा कुंडा सिंह और राम सिंह बागी शहीद हुए थे. पूरे मालवा क्षेत्र में मुजारा आन्दोलन में संघर्षरत किसानों की हिफाजत के लिए लगभग 1100 किसान गुरिल्ले विभिन्न जत्थों में संगठित किए गए थे.

पंजाब के मुजारा आन्दोलन को देश के क्रांतिकारी किसान आंदोलनों की सूची में वह स्थान अब भी नहीं मिला है जिसका वह हकदार था. मुजारा आन्दोलन की पृष्ठभूमि जानने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा. 1885 के आस-पास पंजाब से लोग रोजगार के लिए बाहर के देशों में जाने लगे थे. पर इन मेहनती और स्वाभिमानी लोगों को वहां गुलाम देश के नागरिक के तौर पर लगातार अपमान का घूंट पीना पड़ता था. इस कारण उनके अन्दर देश की आजादी की भावना ज्यादा हिलोरें मारने लगी. 1913 में अमेरिका और कनाडा में रहने वाले भारतीयों जिनमें ज्यादातर सिख थे ने ‘हिन्दी एशोसियेशन पेसिफिक पोस्ट’ नाम का संगठन बनाया. इस संगठन ने 1857 के गदर से प्रेरणा लेकर देश में आजादी के लिए काम करने की योजना बनाई. क्रांतिकारी सोहन सिंह भखना इसके संस्थापक अध्यक्ष बनाए गए. क्रांतिकारी लाला हरदयाल को इस संगठन की ओर से गदर नाम का एक अखबार निकालने का जिम्मा दिया गया. इसी अखबार के नाम से बाद में इस संगठन को गदर पार्टी के नाम से जाना जाने लगा. देश में क्रांति संगठित करने लिए इस संगठन ने 1914 में 800 गदरी भारत भेजे. इनमें से ज्यादातर को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में कई को फांसी की सजा दी गयी. इन क्रांतिकारियों जिन्हें अब हम गदरी बाबा के नाम से संबोधित करते हैं की वीरगाथाएं सभी क्रांतिकारियों के लिए आज भी प्रेरणा की स्रोत हैं.

1942 में गदर पार्टी का कम्युनिस्ट पार्टी में विलय हो गया. पर पिफर 1946 में दो राष्ट्र के सवाल पर मतभेद के कारण इसका बड़ा हिस्सा अलग हो गया और लाल पार्टी का गठन किया. कामरेड तेजा सिंह स्वतंत्र इसके नेता थे. इन्होंने पंजाब के मालवा क्षेत्र को अपने कार्यक्षेत्र के रूप में चुना, जहां बड़े जागीरदारों के खिलाफ मुजारों का आन्दोलन संगठित हो रहा था. मशहूर क्रांतिकारी और पंजाब में भाकपा(माले) के संस्थापक सदस्य बाबा बूझा सिंह भी इनकी टीम में थे. लाल पार्टी के नेतृत्व में किशनगढ़ में जमीन पर कब्जे के संघर्ष में एक थानेदार की मौत हो जाने के बाद पटियाला राज की सेना ने किशनगढ़ को घेरा था और तोपों से उस पर हमला किया था. कम्युनिस्टों के नेतृत्व में मुजारों (गरीब व भूमिहीन किसानों) की बढ़ती ताकत से घबराए पटियाला के राजा को तत्कालीन भारत सरकार ने राज्य प्रमुख का स्थाई पद का लालच देकर भारत की संघीय यूनियन में शामिल कर लिया. तब इसका नाम ‘पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन’ (पेप्सू) था. राज्यपाल की जगह राजा पटियाला राज्य प्रमुख था. पर बाद में भारत सरकार ने 1956 में पेप्सू का पंजाब में विलय कर दिया और पटियाला के राजा को दिया गया राजप्रमुख का पद खत्म कर दिया. आज जब पूरे इतिहास को ही बदल देने के दक्षिणपंथी प्रयासों को परवान चढ़ाया जा रहा है. ऐसे समय में पंजाब के मुजारा आन्दोलन के बारे में भी बाकी देश के लोगों को और खुद पंजाब की नई पीढ़ी को जानने की जरूरत है.

मुजारा आन्दोलन के एक कार्यकर्ता कामरेड कृपाल सिंह वीर अब भी जीवित और सक्रिय हैं. पंजाब के मानसा जिले के वीर खुर्द (छोटी वीर) गांव के निवासी हैं जिनकी उम्र 91 वर्ष है. वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के वरिष्ठ नेता हैं. कभी पार्टी के जिला सचिव की भूमिका भी निभाई है और आज भी पूरी तरह से किसान आन्दोलन में सक्रिय हैं. चुनाव के दौरान 15 मई को पार्टी कार्यालय में इनसे मुलाकात हुई. 16 मई को अपने गांव में चुनावी सभा कराने के लिए नेताओं से समय लेने पहुंचे थे. इनका गांव भीखी कस्बे से 7 किमी दूर और मानसा जिला मुख्यालय से 23 किमी दूर है. पार्टी जिला कार्यालय मानसा में अक्सर आते हैं. अभी भी गांव से 7 किलोमीटर साइकिल चलाकर भीखी पहुंचते हैं. वहां से बस से मानसा. वापसी में फिर भीखी से 7 किलोमीटर साइकिल चला कर अपने घर पहुंचते हैं. यानी एक दिन में 14 किलोमीटर साइकिल अब भी चलाते हैं. अभी कुछ साल पहले तक वे मानसा भी साइकिल से ही आते थे. यानी एक दिन में 46 किलोमीटर साइकिल चलाते थे.

इनका जन्म नवम्बर 1928 में वर्मा में हुआ था. पिता वहीं नौकरी करते थे. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 1942 में इन्हें पिता के साथ वर्मा से पैदल भाग कर भारत आना पड़ा. स्कूली पढ़ाई कक्षा 3 तक रही. जब पंजाब पहुंचे तो उन दिनों यहां बड़े जागीरदारों के खिलाफ लाल पार्टी के नेतृत्व में मुजारों का आन्दोलन चल रहा था. इस आन्दोलन का नेतृत्व गदर आन्दोलन से जुड़े कम्युनिस्ट कर रहे थे. उन्होंने ही लाल पार्टी का गठन किया था जिसका झंडा लाल और उसपर निशान हसिया हथौड़ा था. सोलह वर्षीय युवक कृपाल सिंह वीर भी 1944 में इस आन्दोलन में सक्रिय हो गए. 1949 में उन्होंने लाल पार्टी की सदस्यता ली. यह वह दौर था जब पंजाब का मुजारा आन्दोलन और उसका दमन अपने चरम पर था. मुजारों ने पूरे पंजाब में जागीरदारों की लाखों एकड़ जमीनों पर कब्जा कर लिया था. पटियाला राज की सेना के साथ मुजारों की झड़पें हो रही थी. 1948 तक मुजारों को जमींदारों के अत्याचारों से बचाने के लिए सशस्त्र किसानों के 30-40 की संख्या वाले कई जत्थे गठित किए गये. इन जत्थों में लगभग 1100 सशस्त्र किसानों की गोलबंदी हो चुकी थी.

51-52 में यहां राष्ट्रपति शासन के दौरान भारी सरकारी दमन के आगे 1948 से 1951 के बीच जमीनों पर काबिज गैर मौरूसी काश्तकार अपना कब्जा बरकरार नहीं रख सके. जबकि दखली काश्तकार अपना कब्जा बरकरार रखने में कामयाब रहे. पहले विधान सभा चुनाव में मुजारा आन्दोलन की लाल पार्टी के चार विधायक चुनाव जीत गए. विधान सभा त्रिशंकु बनी. उसके बाद मुजारों को जमीन का मालिकाना हक देने की शर्त पर लाल पार्टी ने ज्ञानसिंह राड़ेवाल की सरकार को समर्थन दिया. इसी के दबाव में 1953 में किसानों की बेदखली रोकने व सुरक्षा प्रदान करने के लिए पेप्सू कृषक अधिनियम पारित किया गया. इसी वर्ष पेप्सू भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया और किसानों को जमीन का मालिकाना हक दे दिया गया. 1948 से 52 तक चले जबरदस्त मुजारा आन्दोलन में 884 गावों की 18 लाख एकड़ जमीन को बांट कर मुजारों (गैर मौरूसी व दखली काश्तकारों) को उस दखल जमीन का मालिकाना हक दिया गया.

मुजारा आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण कामरेड कृपाल सिंह वीर 1952 में हुए पहले पंचायती चुनाव में वीर बेहपई गांव के पहले सरपंच (ग्राम प्रधान /मुखिया) चुने गए. अब इस गांव की दो पंचायतें हो चुकी हैं. बाद में लाल पार्टी ने सीपीआई में अपना विलय कर दिया. कामरेड कृपाल सिंह वीर 1984 में पार्टी लाइन से मतभेतों के कारण वे सीपीएम और फिर 1994 में भाकपा(माले) में शामिल हो गए. अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कामरेड रुलदू सिंह के साथ कामरेड कृपाल सिंह वीर सन् 2016 में लगातार 11 महीने और अभी सन् 2019 में लगातार तीन महीने किसानों की कर्ज माफी की मांग पर मानसा जिला मुख्यालय पर धरने में बैठे रहे. इन्हें पढ़ने लिखने का बड़ा शौक है. इनके घर में (गांव में) इन्होंने 2000 किताबों की एक लाइब्रेरी बनाई है. कुछ लिखा भी है और कुछ लिखवाया भी है. गांव में मजदूरों-किसानों के बच्चों को वे साहित्य पढ़ने को प्रेरित करते रहते हैं. आज उनकी लाइब्रेरी की देखभाल भी ऐसे नई पीढ़ी के बच्चे करने लगे हैं. इस प्रकार मुजारा आंदोलन की विरासत जारी है.