वर्ष - 28
अंक - 52
14-12-2019

- शिवानी नाग

विभिन्न किस्म की (वर्गीय, जातीय, लैंगिक तथा दूसरी तरह की) तीखी असमानताओं से भरे किसी देश में शिक्षा प्रायः एक आशा की किरण के रूप में देखा जाता है – मर्यादापूर्ण जिंदगी जीने में समर्थ बनाने वाली आशा! मर्यादा, समानता और न्याय के बगैर जीवन का अधिकार अधूरा रह जाता है और सूचना, ज्ञान, ज्ञान निर्माण तथा कौशल तक समान पहुंच के अभाव में इन चीजों के मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. दूसरे शब्दों में, शिक्षा तक समान पहुंच के बगैर हम इनके बारे में सोच नहीं सकते हैं. इसीलिए आज के समय में यह त्रासद ही है कि हमें यह समझाना पड़ रहा है कि गुणवत्तापूर्ण सुलभ शिक्षा एक अनिवार्य अधिकार है जो सबके लिए सुनिश्चित होना चाहिए. यह चरम त्रासदी ही है कि करदाताओं के पैसे के समस्त उपयोगों में गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा पर खर्च को कुलीन तंत्र और मीडिया के द्वारा एक मखौल बना देने की कोशिश की जा रही है.

आज जेएनयू में जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह शिक्षा तक समान पहुंच तथा मर्यादा व समानता के साथ जीवन के अधिकार पर हो रहे हमले के प्रतिरोध की लड़ाई है. जेएनयू के छात्र व शिक्षक जो संघर्ष कर रहे हैं वह खुद के लिए कुछ सौ और हजार रुपये बचाने भर का संघर्ष नहीं है, बल्कि वे यह सुनिश्चित करने के लिए लड़ रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर शोध व शैक्षिक कर्म की गुणवत्ता के लिए मान्यताप्राप्त एक संस्थान में शिक्षा सबके लिए सुलभ बनी रह सके.

सुलभ और गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा के लिए लड़ाई ऐसे देश में खास तौर पर प्रासंगिक हो जाती है जहां स्कूली शिक्षा प्रणाली में कई किस्म के श्रेणी-विभेद (निजी व सरकारी स्कूलों के बीच और विभिन्न तरह के सरकारी स्कूलों के बीच भी) मौजूद हैं. हमारी स्कूली शिक्षा प्रणाली ने सुविधासंपन्न व हाशिए पर खड़े तबकों के बीच की खाई को पाटने के बजाए उन्हें और चैड़ा ही कर दिया है. ‘केंद्रीय विद्यालयों ’ और ‘सैनिक स्कूलों’ जैसे अपेक्षाकृत बेहतर गुणवत्तापूर्ण सरकारी स्कूलों को अपने दायर से बाहर रख कर ‘निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम (2009)’ ने यही सुनिश्चित किया है कि यह ‘अधिनियम’ कमजोर बना रहे. इस असमान स्कूली प्रणाली का नतीजा यह हुआ है कि संसाधनयुक्त लोग ही गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा हासिल कर सकते हैं; और जो संसाधनहीन खामोश दबे लोग हैं वे सबसे निचली श्रेणी के सरकारी विद्यालयों में ध्केले जा रहे हैं जहां प्रायः शैक्षिक अध्सिंरचना का घोर अभाव रहता है और यहां तक कि जिन स्कूलों में पर्याप्त संख्या में योग्य व प्रशिक्षित स्थायी शिक्षक भी नहीं होते हैं. सरकारी विद्यालयों की इसी दुर्दशा के चलते मां-बाप को ऊंची फीस लेने वाले प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को भेजना पड़ता है और इसके लिए उन्हें अपने संसाधनों के बाहर भी हाथ फैलाना पड़ता है. मध्यवर्गीय परिवारों में पले-बढ़े हममें से कई लोगों ने स्कूली शिक्षा के लिए पैसा जुटाने की खातिर अपने मां-बाप को जूझते देखा है, क्योंकि ‘निःशुल्क’ सरकारी विद्यालयों में गुणवत्ता नहीं है, बेहतर सरकारी स्कूलों में सबके दाखिले के लिए पर्याप्त सीट नहीं है और इसीलिये एकमात्र विकल्प यह बचता है कि वे ऊंची फीस वसूलने वाले निजी स्कूलों की तरफ कदम बढ़ा दें. प्राइवेट स्कूलों के फलने-फूलने की शर्त है कि सरकारी स्कूली प्रणाली को संस्थाबद्ध ढंग से नष्ट कर दिया जाए, और अब उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी यही कहानी दुहराने की स्थिति तैयार कर दी गई है. लोयला, एमिटी, अशोक और अभी गर्भ में पल रहे ‘जिओ’ संस्थानों में जान फूंकने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक उच्च शिक्षा का गला घोंट कर उसे मरणासन्न बना दिया जाए.

हमें यह बात खुद को समझाना जरूरी है जो सार्वजनिक उच्च शिक्षा संस्थानों का गला घोंटने पर इतना कुछ झेल रहे हैं. पिछले कुछ दिनों में, हमने जेएनयू कैंपस के उन छात्रों की अनेकानेक कहानियां सुनी हैं, जो जेएनयू की सुलभता न होने की स्थिति में उच्च शिक्षा का सपना कभी नहीं देख पाते. खेत मजदूरों, सुरक्षा गार्डों और स्कीम वर्करों के बच्चों से लेकर हर जवान और पुलिसकर्मी (जिनके खिलाफ कुछ लोग सबके शैक्षिक अधिकार के लिये लड़ने वाले छात्रों को खड़ा कर देना चाहते हैं) के बच्चे तक – ये सब विश्वस्तरीय शिक्षा का सपना इसीलिये देख और साकार कर पाते हैं, क्योंकि जेएनयू जैसा एक समतामूलक स्थान मौजूद है.

शिक्षण शुल्क, हाॅस्टल फीस और आसपास के ढाबों में खाने के खर्च की सुलभता से यह सुनिश्चित होता है कि ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया सिर्फ क्लास-रूम तक सीमित नहीं रहे, बल्कि तीव्र वाद-विवाद और बहसें इन क्लास-रूम के इर्दगिर्द निर्मित समूहों के बीच पहुंच जाएं, जहां पहुंच पाने की क्षमता एक-दूसरे से सीखने की प्रक्रिया अथवा अवसर में साझीदारी करने के रास्ते में कभी बाध नहीं बनती है. जेएनयू महज ऐसा उच्च शिक्षा संस्थान नहीं है, जो सबको गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा मुहैया कराता है, बल्कि यह ऐसा स्थल है जहां विशेषाधिकार और संपन्नता के सारे बबेले फूट जाते हैं और जहां आने वाले हर एक व्यक्ति को यह बात समझ लेनी पड़ती है. यह ऐसा समतामूलक स्थल है जहां हर कोई समान फीस अदा करता है, और जहां के शैक्षणिक अवसरों व इसकी अधिसंरचना पर सबका समान दावा बना रहता है! एक समान कम शुल्क लेने के चलते यह स्थल किसी संपत्तिशाली इंसान को यह महसूस करने का मौका नहीं देता है कि इस जगह पर उसका दावा किसी अन्य से ज्यादा है;  इसके उलट, सबके लिए समान शर्तें और हर पृष्ठभूमि के छात्रों की उपस्थिति से सबके अंदर एक मानवतावादी भाव उत्पन्न हो जाता है. यह महज संयोग नहीं है कि इस विश्वविद्यालय के छात्र विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक मोर्चे पर अगली पांत में रहे हैं. उदाहरण के लिये, ये जेएनयू के छात्र थे, जो दिसंबर 2012 की ठंड में भारी तादाद में सड़कों पर उतर पड़े और उन्होंने उस समय की सरकार को बलात्कार-विरोधी कानूनों में संशोधन करने तथा इसे लैंगिक रूप से ज्यादा न्यायोचित बनाने के लिए बाध्य कर दिया. यहां के छात्र जबरन बेदखली व भूमि अधिग्रहण, भ्रष्टाचार, जाति-आधारित उत्पीड़न और ऐसे अनेक अन्य मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों का हिस्सा बनते रहे हैं. जेएनयू जिस किस्म का वैविध्यपूर्ण व समावेशी स्थल है, और ऐसा स्थल जिस तरह के आपसी विचार विनिमय व क्रिया-प्रतिक्रियाओं का अवसर प्रदान करता है, उससे तो विशेष सुविधा-संपन्न पृष्ठभूमि से आने वालों के लिए भी वैसे महफूज और गुलाबी दुनिया में रहना मुश्किल हो जाता है, जहां ‘स्व’ और ‘स्वार्थ’ का बोलबाला रहे.

जेएनयू एक शोध विश्वविद्यालय है, इसीलिये सवाल महज ज्ञान तक पहुंच का नहीं है, बल्कि ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी तक पहुंच का सवाल महत्वपूर्ण है. ‘विकास की अवधारणा क्या होगी, और इसके फलस्वरूप होने वाले नुकसान को झेलने में किन्हें महत्वहीन समझा जाएगा’, ‘इतिहास का लेखन कौन करेगा, और इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में किसकी कहानी ओझल कर दी जाएगी’, ‘समाजशास्त्र पर पाठ्यपुस्तक कौन लिखेगा, और इन पुस्तकों में किन लैंगिक समुदायों को आवाज मिलेगी’, ‘मिकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र कौन से कृषि उपकरण तैयार करेंगे, और किस वर्ग के किसानों को इन आविष्कारों से सर्वाधिक लाभ होगा’, ‘ हमारे आर्थिक माॅडल किन्हें और किस किस्म के श्रम को मजदूरी के लायक समझेंगे’.… … इन विषयों में शोध करने वालों के लिये इन सवालों का जवाब ढूंढना तो दूर, खुद ऐसे सवालों को उठाना भी इस बात पर निर्भर करता है कि विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित शोध कार्यों में कौन हिस्सा लेते हैं.

जिन विश्वविद्यालयों में फीस ही अधिकांश लोगों के लिए बाधक बन जाए, वहां हाशिये पर खड़े उत्पीड़ित लोगों के सवाल कभी सूत्रबद्ध ही नहीं हो पाएंगे; और न केवल वे विश्वविद्यालय, बल्कि इन विषयों से संबंधित ज्ञान भी फीका, छिछला और बहिष्कारी बने रहेंगे.

यहां पर यह याद रखना जरूरी है कि स्नातक या स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी करने के बाद ही कोई छात्र शोध कार्य में प्रवेश करता है (विश्वविद्यालयों में शोध कर्मियों की उम्र के बारे में टिप्पणी करते समय अधिकांश मीडिया चैनल इस बात को बताने की परवह नहीं करते हैं). इसका मतलब यह हुआ कि शोध कार्य करने में लोगों की उम्र काफी बीत चुकी होती है. मैं अपनी एमए की डिग्री हासिल करने बाद जेएनयू के एमफिल प्रोग्राम में शामिल हुई थी, और उस वक्त मेरी उम्र 25 साल थी. तब मैं बड़ी दुविधा में उलझी हुई थी. मुझे पता था कि मेरे मन में शोध करने की प्रबल इच्छा थी, लेकिन मेरी उम्र के अधिकांश मित्र कमाई करने लगे हों, उस वक्त फीस के लिए अपने मां-बाप पर निर्भर करने का विचार मुझे बहुत परेशान कर रहा था. उस समय, इस बात से मुझे काफी प्रेरणा मिली कि यूजीसी की छात्रवृत्ति से जेएनयू की फीस भरी जा सकती है. इससे मुझे शोध कार्य में अपनी अभिलाषा पूरी करने में काफी मदद मिली, और मैं अपने अंदर उठ रहे सवालों को पूछने तथा अपने शोध के जरिये अपने विषय में कुछ योगदान करने में समर्थ हो सकी. यह भी नहीं भूल सकती कि फिलहाल मैं एक विश्वविद्यालय में पढ़ाती हूं – और विश्वविद्यालय में शिक्षक बनने के लिए रिसर्च डिग्री का होना एक पूर्व शर्त है. और इसीलिये, जब अधिकांश लोगों को शोध कार्य में प्रवेश करने का मौका नहीं दिया जाएगा तो इसका मतलब यह हुआ कि विश्वविद्यालय शिक्षण कार्य करने का भी अवसर उनसे छीन लिया जाएगा. इसीलिए, शोध में मौका न देने का मतलब यह भी हुआ कि आप अब कोई सवाल नहीं पूछ सकते, ज्ञान के क्षेत्र में कोई योगादन नहीं दे सकते और न ही पढ़ाने का कोई मौका आपको उपलब्ध होगा. इससे हम उसी पुराने जमाने में धकेल दिये जाएंगे जब विशेषाधिकार-प्राप्त लोग ही सिर्फ सुविधा संपन्न लोगों को कौशल व ज्ञान प्रदान करते थे.

लोकतंत्र उस स्थिति में लोकतंत्र नहीं रह जाएगा, अगर ज्ञान व ज्ञान-निर्माण तक पहुंच की प्रक्रिया का जनवादीकरण न किया जाए. कोई राष्ट्र शायद ही प्रगति कर पाएगा, अगर वहां अज्ञानता का बोलबाला हो और कौशल सिर्फ मुट्ठी भर लोगों का विशेषाधिकार बनकर रह जाए. और इसी वजह से, आज जेएनयू के छात्रों की जो लड़ाई है, उस लड़ाई का हमें स्वागत करना होगा और उसे मजबूत बनाना होगा. यह लड़ाई हम सबके के लिए की जाने वाली लड़ाई है.