वर्ष - 28
अंक - 52
14-12-2019
[ सीएबी और एनआरसी के विरोध में केवल राजनीतिक एवं सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों ने ही नहीं, भारत के वैज्ञानिकों एवं बुद्धिजीवियों भी उठ खड़े हुए हैं. देश के एक हजार से ज्यादा वैज्ञानिकों एवं बुद्धिजीवियों ने इन विनाशकारी कानूनों के खिलाफ विरोध व्यक्त करते हुए निम्नलिखित बयान जारी किया है.]

हम भारतीय वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों का एक ग्रुप हैं. सरोकार रखने वाले नागरिकों की हैसियत से अपनी व्यक्तिगत क्षमता में यह बयान जारी कर संसद के पटल पर नागरिकता संशोधन बिल 2019 रखे जाने की कथित योजना पर अपना आश्चर्य प्रकट कर रहे हैं. हम मौजूदा संस्करण में इस बिल को ठीक-ठीक नहीं देख पा रहे हैं. हमारा यह बयान मीडिया रिपोर्ट और जनवरी 2019 में लोकसभा द्वारा पारित बिल के पहले वाले संस्करण के ब्योरे पर आधारित है. इसके बावजूद, हम इस समय ही यह बयान जारी करने के लिए बाध्य महसूस कर रहे हैं, क्योंकि खबर है कि इस बिल को अगले सप्ताह के आरंभ में संसद के पटल पर रखा जा सकता है और उसके तुरत बाद दोनों सदनों में इस पर मतदान कराया जा सकता है.

हम समझ रहे हैं कि यह बिल अफगानिस्तान, बांग्लोदश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करना चाहता है. इस बिल का घोषित मकसद पड़ोसी मुल्कों से आए उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को शरण देना है. जहां हम इस प्रशंसनीय उद्देश्य का समर्थन करते हैं, वहीं यह काफी परेशान करने वाली बात है कि इस बिल में धर्म को भारतीय नागरिकता निर्धारित करने का कानूनी मानदंड बनाया जा रहा है.

स्वतंत्रता आंदोलन से जिस भारत की अवधारण उपजी थी और हमारे संविधान में जिस भारत की संकल्पना निहित है, वह एक ऐसा देश है जहां तमाम आस्थाओं के लोगों के साथ असमान आचरण किया जाएगा. इस प्रस्तावित बिल में नागरिकता के मानदंड के बतौर धर्म के इस्तेमाल का मतलब होगा इस इतिहास के साथ संपूर्ण विच्छेद, जो संविधान के बुनियादी ढांचे के साथ विसंगतिपूर्ण होगा. हमें खास तौर पर यह भय है कि इस बिल के दायरे से मुस्लिमों को सोच-समझकर बाहर रखने से इस देश का बहुलतावादी तानाबाना काफी तनावग्रस्त हो जाएगा.

हम देखते हैं कि भारतीय संविधान की धारा14 में राज्य को रोका गया है कि वह “कानून के समक्ष किसी भी व्यक्ति की समानता अथवा भारत की सीमा के अंदर उसे कानून द्वारा समान संरक्षा” से इंकार करे. यह निर्धारित करना तो कानून के विशेषज्ञों का काम है कि यह मसविदा बिल संविधान के इन शब्दों का उल्लंघन करता है या नहीं, मगर हमें यह निश्चित रूप से प्रतीत होता है कि यह मसविदा संविधान की भावना का उल्लंघन कर रहा है.

उपर्युक्त कारणों से हम इस बिल को फौरन वापस लेने की अपील करते हैं और इसकी जगह ऐसा उचित कानून बनाने का निवेदन करते हैं जिसमें किसी किस्म के भेदभाव के बगैर शरणार्थियों व अल्पसंख्यकों के सरोकारों को ध्यान में रखा जा सके.