वर्ष - 33
अंक - 5
05-02-2024
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तीन दशकों के लंबे इंतजार के बाद अंततः कर्पूरी जी को भारत रत्न का सम्मान हासिल हुआ. राष्ट्रपति द्वारा इसकी घोषणा के तुरत बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि उनकी सरकार की नीतियों में कर्पूरी जी का ही विजन है. गरीबों की शिक्षा और कमजोर वर्गों के उत्थान की प्रेरणा उन्हें कर्पूरी जी से ही मिलती है. पूरा संघ गिरोह मोदी को ऐसे पेश करने लगा मानो कर्पूरी जी के असली वारिस और सामाजिक न्याय के असली योद्धा मोदी ही हैं. जाहिर सी बात है कि विरासत हड़पने की ही राजनीति करने वाली भाजपा कर्पूरी जी को हड़पने की कोशिश क्यों नहीं करेगी? वह भी ऐसे वक्त में जब लोकसभा का चुनाव हमारे सामने है. यह कितना हास्यास्पद है कि भाजपा नेताओं के मुंह से यह सुनें कि वे लोग कर्पूरी जी की राह पर आगे बढ़ने वाले लोग हैं. ठीक है कि इमरजेंसी के खिलाफ व्यापक आंदोलनों और उसके बाद बनी गैर-कांग्रेसी कर्पूरी सरकार में जनसंघ (आज की भाजपा) भी घुसी हुई थी, लेकिन इतना भर से कर्पूरी जी को भाजपा अपने पक्ष में नहीं मोड़ सकती. हकीकत यह है कि कर्पूरी जी और संघ परिवार के रिश्ते हमेशा परस्पर विरोधी बने रहे. संघ परिवार चाहकर भी इस सच्चाई पर पर्दा नहीं डाल सकता.

ऐसा नहीं था कि सोशलिस्ट नेताओं को जनसंघ और आरएसएस के कारनामों का अंदाजा नहीं था. मधु लिमये ने कहा था कि राजनीति में कुछ ऑबजेक्टिव कम्पलशन होते हैं और उस कम्पलशन के कारण कई बार अनचाहे गठजोड़ भी करने पड़ते हैं. संभवतः इसी राजनीतिक कम्पलशन की वजह से कर्पूरी जी जनसंघ जैसी सांप्रदायिक व विभाजनकारी ताकतों के साथ मोर्चा बनाने के लिए विवश हुए थे. वरना वे ऐसी ताकतों से दूर ही रहते. उस मौके का इस्तेमाल जनसंघ अपने सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए करना चाहती थी. वह कभी भी कर्पूरी जी के विचारों और उनकी सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की समर्थक नहीं रही. कर्पूरी जी ने भी अपने समाजवादी मूल्यों और दलितों-वंचितों के राजनीतिक-सामाजिक उत्थान के लिए नीतियों के स्तर पर जनसंघ से किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया. मुंगेरी लाल कमीशन का आरक्षण फॉर्मूला लागू करने के बाद प्रदेश के कोने-कोने में कर्पूरी जी का भारी विरोध हुआ था. उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां दी गईं थीं. ब्राह्मणवादी ताकतों की ओर से जितनी गालियां कर्पूरी जी को सुननी पड़ी संभवतः पेरियार और अंबेडकर को भी सामने से उतनी गालियां कभी नहीं पड़ी होंगी. आखिर वे कौन लोग थे? ये सामाजिक रूप से मजबूत वे जाति समुदाय ही थे, जो वंचितों की हर अग्रगति के खिलाफ खड़े थे. इन सामंती-सांप्रदायिक ताकतों को जनसंघ ही तो हवा दे रही थी. जनसंघ कर्पूरी जी पर लगातार दबाव बनाती रही और अंततः उसने ही षड्यंत्र करके 19 अप्रील 1979 को सरकार गिरा दी. कर्पूरी जी ने सरकार गंवाना पसंद किया लेकिन जनसंघ के सामने घुटने टेकना स्वीकार नहीं किया. लेकिन, कर्पूरी जी ने आरक्षण नीति के लिए जमीन तैयार कर दी थी, जिसकी परिणति 90 के दशक में मंडल कमीशन के रूप में हुई. द ऑर्गनाइजर ने इसे ‘शूद्र क्रांति’ कहा था और भाजपा ने वीपी सिंह की सरकार गिरा दी थी. प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा कि उन्होंने कर्पूरी जी को कभी देखा तो नहीं, लेकिन उनके बारे में कैलाशपति मिश्र से सुना करते थे. यह कहना प्रासंगिक होगा कि कर्पूरी जी की सरकार गिराने के षड्यंत्र रचने वालों में मिश्र जी का भी नाम प्रमुखता से आता है. जनसंघ और आरएसएस शोषित-वंचितों और पिछड़ों के पक्ष में कर्पूरी जी द्वारा उठाए गए कदमों के हमेशा खिलाफ रहे. सो किसी भी पहलू से भाजपा उनकी वारिस हो ही नहीं सकती.

इतिहास से निकलकर थोड़ा वर्तमान में आया जाए. यदि यह प्रश्न पूछा जाए कि आज कर्पूरी जी जीवित होते, तो कहां होते? क्या गरीबों की आत्मरक्षा के लिए हथियार मांगने के जुर्म में भाजपा सरकार उन्हें आतंकवादी बताकर उनपर यूएपीए नहीं लगा देती? क्या नागभूषण पटनायक जैसे जननेताओं की रिहाई की मांग पर आंदोलन करने के जुर्म में उन्हें देशद्रोही बताकर जेल में नहीं डाल दिया गया होता? क्या जन मुद्दों पर सवाल पूछने के जुर्म में उनकी विधानसभा सदस्यता खत्म नहीं कर दी गई होती? कहां होते कर्पूरी जी यदि आज जीवित होते!

यह संयोग था कि देश में भाजपा के नेतृत्व में सांप्रदायिक फासीवाद के उभार के पहले ही कर्पूरी जी चल बसे. अन्यथा आरएसएस और कर्पूरी जी की विचारधारा का स्पष्ट विभाजन और खुलकर सामने आ जाता. 90 के दशक में भाजपा के राम मंदिर आंदोलन के दौर में कर्पूरी जी होते तो इसमें कोई शक नहीं कि वे विरोध की सबसे मुखर आवाज बनकर उभरते. अभी 22 जनवरी को देश के संवैधानिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने राम मंदिर का उद्घाटन किया. राम मंदिर आंदोलन के बारे में सोशलिस्ट नेताओं की क्या राय थी? डॉ. राम मनोहर लोहिया के लिए ‘राम’ भारत के कोई इतिहास पुरुष नहीं थे. उन्होंने कहा था कि राम को भारत के किसी भू-भाग में खोजने की बजाए लोगों के मानस में खोजना चाहिए. डॉ. लोहिया ने अयोध्या में नहीं बल्कि चित्रकूट में रामायण मेला की शुरूआत की थी. इसके पीछे राम के माध्यम से सामाजिक एकता व दलितोत्थान आदि पक्ष को उजागर करने की कोशिश की थी. रामलीला के बरक्स रामायण मेला को उन्होंने सामाजिक संस्कृति का द्योतक बताया था. कर्पूरी जी इन मामलों में लोहिया जी के विचारों के करीब थे. भाजपा के लिए तो राम ‘हिंदू राष्ट्र’ की पदस्थापना के प्रतीक हैं. जय श्री राम के उद्घोष में मुसलमानों और समाज के वंचित तबके के प्रति घोर तिरस्कार का भाव है. संवैधानिक लोकतंत्र को कुचलकर देश में धर्मतंत्र स्थापित करने का खुला उद्घोष है. सामाजिक विद्वेष का गहरा दंश झेलने वाले कर्पूरी जी के लिए भाजपा के हिंदुत्व और संविधान को अपदस्थ कर देने की कोशिशों से किसी भी प्रकार की सहमति बिलकुल असंभव थी. भाजपा तो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हिंदू धर्म की आंतरिक संरचना को बचाकर रखना चाहती है. लेकिन कर्पूरी जी तो हिंदू जाति के भीतर के शोषणकारी संबंधों के खिलाफ खड़े एक दुर्घर्ष योद्धा के रूप में याद किए जाते हैं. आजाद भारत में इस सामाजिक उत्पीड़नकारी संरचना के खिलाफ चली लड़ाई में डॉ. अंबेडकर के बाद कर्पूरी जी का ही नाम आता है.

आपातकाल के दौरान कर्पूरी जी के अभिव्यक्त विचारों में वंचित समुदाय के लिए आरक्षण व शिक्षा के साथ-साथ भूमि सुधार और उसके जरिए समाजवादी समाज की स्थापना करने की ललक दिखती है. भाजपा तो आरक्षण के पूरी तरह खिलाफ है और हर दिन किसी न किसी रूप में उसे कमजोर ही कर रही है. वंचित समुदाय की सही संख्या और तदनरूप नीतियां बनाने के लिए जाति गणना की मांग लंबे समय से देश में होती रही है. 1931 के बाद कोई जाति गणना हुई ही नहीं. भाजपा ने इस लोकप्रिय मांग को तो सिरे से खारिज कर दिया था. बिहार सरकार ने जब अपनी पहल पर जाति गणना करवाने की शुरूआत की, तब उसमें कई प्रकार के रोड़े भाजपा ने ही अटकाए. जाति गणना की रिपोर्ट जारी होने के बाद उसे झूठलाने का भी प्रयास किया. यदि कर्पूरी जी के विचारों का भाजपा थोड़ा भी सम्मान करती तो क्या वह जाति गणना से इस कदर पीछे भागती? हकीकत यह है कि वह कर्पूरी जी के समाजवादी विचारों को धो-पोछकर साफ कर देना चाहती है. इन्हीं संघियों और प्रशासन में बैठी व्यवस्था विरोधी ताकतों की वजह से कर्पूरी जी चाहकर भी भूमि सुधार लागू नहीं कर पाए. उस वक्त अंदर ही अंदर ये सारी परिवर्तनविरोधी ताकतें उनके खिलाफ खड़ी हो गई थीं. कर्पूरी जी को उनकी असलियत अच्छे से पता थी. इसलिए मृत्यु के पहले उनका राजनीतिक संबंध 80 के दशक में बिहार के ग्रामांचलों में चलने वाले भूमिहीन-दलित गरीब किसान आंदोलनों के साथ गहरा बनने लगा था. वे आइपीएफ के आंदोलनों में सक्रिय तौर पर भाग लेने लगे थे. प्रेस की आजादी, नागरिकों के अधिकार और सत्ता में बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के विरोध में कर्पूरी जी सबसे मुखर आवाज बुलंद करने वाले बिहार के अंतिम आदमी के नेता थे. भाजपा तो आज वही सब काम कर रही है जिसके खिलाफ कर्पूरी जी जीवनपर्यन्त लड़ते रहे. गरीबों के पक्ष में खड़ा होने की वजह से उनपर हिंसक प्रवृत्तियों को बढ़ाने का भी आरोप लगता रहा. कोई भी आदमी जो बहुसंख्यक समुदाय के पक्ष में खड़ा होता है उसे हिंसक कह दिया जाता है और उसपर हमला किया जाता है. कर्पूरी जी पर भी हमला हुआ था. उन्होंने कहा था कि वोट का अधिकार व्यक्तिगत अधिकार है, वह हमारी व्यक्तिगत संपत्ति है. हमारे अधिकार का जो हनन व मर्दन करना चाहता है तो उसका भी मर्दन होना चाहिए. भाजपा वालों ने तो आज चुनाव आयोग को ही अगवा कर लिया है. कर्पूरी जी से उनका क्या सामंजस्य है?

 70 के दशक की इमरजेंसी से गुणात्मक रूप से भिन्न और इतिहास के चक्र को ही पलटने की कोशिश में लगी भाजपा के स्थायी आपातकाल के खिलाफ आज यदि कर्पूरी जी जीवित होते तो वे तमाम आंदोलनकारी ताकतों की एकता के अग्रदूत होते. उनके हाथों में देश का झंडा और संविधान होता. इसलिए उनके सच्चे वारिस वे हैं जो आज संविधान व लोकतंत्र को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं. कर्पूरी जी दैहिक रूप से भले न हों, लेकिन उनकी वैचारिकता आज भी वह जमीन प्रदान करती है, जिसपर खड़े होकर तमाम देशभक्त-लोकतंत्र पसंद अवाम, सोशलिस्ट व कम्युनिस्ट ताकतों की एकता स्थापित हो सकती है. कर्पूरी जी की विरासत हमारी विरासत है. भाजपा भारत रत्न की आड़ में अपने अपराधों को छुपाने और कर्पूरी जी की विरासत हड़पने की जितनी कोशिश कर ले, कर्पूरी जी के विचार भाजपा के फासीवादी मंसूबों के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज बन कर तन कर खड़ा रहेगा. कर्पूरी जी जीवन भर संघ परिवार के विचारों से लड़ते ही रहे और हमें भी उसी मजबूती से लड़ते रहना है.