वर्ष - 29
अंक - 9
15-02-2020
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प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर उच्चतम न्यायालय ने जो फैसला दिया, वह सामाजिक न्याय के प्रति सत्ताधारियों और अदालत के रुख को लेकर नए सिरे से सवाल खड़े करता है. उच्चतम नयायालय के फैसले की जो पंक्तियां चर्चा में हैं, हेडलाइन बन रही हैं, वे हैं – प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है. लेकिन फैसले को देखें तो बात इतनी भर नहीं है, बल्कि इससे बढ़कर है. इस मामले में केंद्र और उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने जो रुख अपनाया है, वह अपने कृत्य पर झूठ का आवरण ओढ़ाने की कोशिश है. भाजपा को साफ तौर पर ऐलान करना चाहिए कि वह सामाजिक न्याय के किसी सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती और जब अवसर मिलेगा, उस पर पार्टी चोट करेगी या चोट करने में योगदान करेगी.

7 फरवरी 2020 को मुकेश कुमार एवं अन्य बनाम उत्तराखंड सरकार के मामले में फैसला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने प्रमोशन में आरक्षण को खत्म कर दिया. उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि प्रमोशन में आरक्षण का दावा करना कोई मौलिक अधिकार नहीं है. उच्चतम न्यायालय के ही पुराने निर्णयों का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि अनुच्छेद 16(4) और 16(4)(क) समर्थकारी प्रावधान (इनैबलिंग प्रोवीजन) हैं, जो राज्य सरकार को यह विवेकाधिकार देते हैं कि अगर ऐसी आवश्यकता है तो वह आरक्षण देने पर विचार करे. उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह स्थापित कानून है कि राज्य सरकार को आरक्षण देने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता. अदालत ने यह भी कहा कि राज्य सरकार अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति के लिए प्रमोशन में  आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए बाध्य नहीं है. लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि यदि वह ऐसा करती है तो उसके लिए सरकार के पास परिमाणात्मक आंकड़ा होना चाहिए जो यह सिद्ध करे कि इन वर्गों के समुचित प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण आवश्यक है. इस तरह देखें तो उच्चतम न्यायालय ने गेंद राज्य सरकार के पाले में धकेल दी है. अदालत ने इस मामले में कोई भी परमादेश (मैंडेमस) जारी करने से इंकार कर दिया.

उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का एक अजीबोगरीब पहलू यह है कि आरक्षण देने के लिए वह परिमाणात्मक आंकड़ा होने को आवश्यक करार देता है. लेकिन अगर सरकार प्रमोशन में आरक्षण न देने का निर्णय ले तो फैसला कहता है कि सरकार को इसके लिए परिमाणात्मक आंकड़ा देकर यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति का सरकारी सेवाओं में समुचित प्रतिनिधित्व है. अदालत द्वारा यह तक कह दिया गया है कि सार्वजनिक सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति के अल्प प्रतिनिधित्व का मामला उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में लाया जाये तब भी अदालत द्वारा आरक्षण देने के लिए कोई परमादेश नहीं जारी किया जा सकता. यह तो अतिरेक है. एक तबके या यूं कहिए कि कतिपय जातियों के लोगों को समुचित प्रतिनिधित्व सरकारी सेवाओं में नहीं मिलेगा तो वे अदालत के पास जाएंगे और अदालत पहले से फैसला करके बैठी हो कि वे कोई आदेश नहीं जारी करेंगे तो फिर न्याय के लिए उनके पास रास्ता ही क्या बचता है? उत्तराखंड में सरकारी रिपोर्टें बता रही हैं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का समुचित प्रतिनिधित्व सरकारी सेवाओं में नहीं है. पर जब उच्चतम न्यायालय इस मसले पर आदेश करने के मामले में पहले ही हाथ खड़े कर दे तो न्याय मांगने कहाँ जाया जाये?

इस मामले में राष्ट्रीय स्तर पर सवाल उठने पर भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार ने जवाब देने का जो रास्ता चुना, वह अर्धसत्य और झूठ का मिश्रण है. संसद में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामलों के मंत्री थावर चंद गहलौत और देहरादून में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने कहा कि प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने का निर्णय तो 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार ने लिया था. सवाल यह है कि यदि भाजपा इस फैसले को उचित नहीं समझती थी तो उसने यह फैसला बदला क्यूं नहीं? कांग्रेस का फैसला अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कार्मिकों के हितों के खिलाफ था तो इसे बदलने से भाजपा को किसने रोका था? तथ्य यह है कि 2012 में जिन विजय बहुगुणा ने कांग्रेस की सरकार में मुख्यमंत्री रहते हुए यह निर्णय लिया, वे अब भाजपा में हैं और उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्य वर्तमान में भाजपा की उत्तराखंड सरकार में भी मंत्री हैं. सवाल तो  विजय बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री बने कांग्रेस के नेता हरीश रावत पर भी है, कि यदि वे इस निर्णय को गलत समझ रहे थे तो उन्होंने इसे क्यों नहीं बदल दिया?

मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत और भाजपा तो इसे कांग्रेस सरकार का निर्णय कह कर नहीं बच सकते. उच्चतम न्यायालय में इस प्रकरण में उत्तराखंड सरकार की तरफ से खड़े हुए अधिवक्ताओं पी एस नरसिम्हा और मुकुल रोहतगी ने जोर देकर कहा कि राज्य सरकार ने आरक्षण न देने का फैसला कर लिया है. अदालत में कहिए कि सरकार आरक्षण नहीं देना चाहती और सार्वजनिक रूप से कहिए कि हमारी सरकार का फैसला ही नहीं है, पिछली सरकार का फैसला है. यह दोमुंहापन है, दोहरा चरित्र है.

जिन्हें कहीं भी, किसी भी प्रकार के आरक्षण से हार्दिक प्रसन्नता होती है, वे जान लें कि सरकारें आरक्षण ही नहीं सरकारी नौकरियां भी खत्म कर रही हैं. सरकारी नौकरियां रहेंगी तभी वह सामान्य श्रेणी वालों को भी उपलब्ध होंगी और आरक्षित वर्ग को भी. उत्तराखंड में 56 हजार के करीब पद रिक्त हैं, यदि कोई लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है तो इन पदों पर योग्यता अनुसार, पारदर्शी तरीके से नियुक्ति के लिए लड़ने की आवश्यकता है. वरना सरकार धीरे-धीरे इन पदों को मृत घोषित कर देगी और आप अपने नकली जातीय श्रेष्ठता बोध में पड़ कर आरक्षण के खिलाफ लड़ते और कुढ़ते रहेंगे.
– इन्द्रेश मैखुरी